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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९.२३५ ] एकोनविंशोऽधिकारः २१७ नानादेशपुरनामान बोधयन् भव्यमाक्तिकान् । बहुधर्मोपदेशेन कुर्वन्मोक्षपथे स्थिरान् ॥२१॥ निध्याज्ञानकुध्वान्तं प्रकाश्याध्वानमूर्जितम् । मुक्तर्वचोंऽशुभिर्देव आजगाम क्रमान्महान् ॥२१९॥ सच्चम्पानगरोद्यानं फलपुष्पादिशोभितम् । विहृत्य षड्दिनोनानि त्रिंशद्वर्षाणि तीर्थराट् ॥२२०॥ तन्त्र योग निरुध्यासौ दिव्यभाषां च निःक्रियः । मुक्तयेऽघातिहन्तारं प्रतिमायोगमाददौ ॥२२१॥ अथ देवगतिः पञ्चशरीराणि तथैव च । पञ्चसंघातनामानि पञ्चाङ्ग बन्धनान्यथ ॥२२२॥ त्रीण्याङ्गोपाङ्गानि षट्संस्थानानि संहननानि षट् । पञ्च वर्णा द्विगन्धप्रकृती पञ्च रसास्तथा ॥२२३॥ अष्टौ स्पर्शास्तथा देवगत्यानुपूज्यं कर्म वै । ततोऽगरुलघरचोपघातोऽथ परघातकः ॥२२॥ उच्छ्वासो द्विविहायोगती चापर्याप्तिसंज्ञकः । प्रत्येकः स्थिरनामास्थिरः शुभाशुभदुर्मगाः ॥२२५॥ दुःस्वरः सुस्वरानादेया यश-कीर्तिरेव हि । असातकर्मनीचैर्गोन निर्माणं जिनोत्तमः ॥२२६॥ द्वासप्ततिप्रमा एताः प्रकृतीमुक्तिवाधिनीः । अयोगाख्यगुणस्थानमारुह्य योगशक्तितः ॥२७॥ तुर्य शुक्लमहाध्यानखड्गेन सुमटो यथा । निजारातीन् जघानाशु तस्यान्त्यसमयद्वये ॥२२८॥ तत आदेयनामाथ मनुष्यगतिसंज्ञकः । ततो नरगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यसमाह्वयः ॥२२९॥ पञ्चाक्षजातिमायुःपर्याप्तित्रसबादराः । सुभगाख्यो यशःकीर्तिः सातोच्चैर्गोत्रसंज्ञकौ ॥२३०॥ तीर्थकृनाम तीर्थेश एतास्त्रयोदशप्रमाः । प्रकृतीस्तेन शुक्लेन तस्यान्त्यसमयेऽप्यहन् ॥२३१॥ ततोऽसौ कृत्स्नकर्मारिकायत्रयविनाशतः । निर्वाणमगमचोर्ध्वगतिस्वभावतोऽमलः ॥२३२॥ कार्तिकाख्ये शुभे मासे अमावास्यामिधे तिथौ । स्वातिनामनि नक्षत्रे प्रभातसमये वरे ॥२३३॥ तत्र सिद्धत्वमासाद्य सम्यक्त्वादिगुणाष्टकम् । भुङ्क्ते सुखं निरौपम्यं सोऽमूतों विषयातिगम् ॥२३४॥ परद्रव्यातिगं नित्यं स्वात्मजं दुःखदूरगम् । निराबाधं क्रमातीतमनन्तं परमं शुभम् ॥२३५॥ वासी जनोंको सम्बोधते, धर्मोपदेशसे मोक्षमार्गमें स्थिर करते हुए तथा अपनी वचन-किरणोंसे अज्ञानान्धकारका नाश कर और उत्तम मार्गका प्रकाश कर छह दिन कम तीस वर्ष तक विहार करके क्रमसे फल-पुष्पादि शोभित चम्पानगरीके उद्यानमें आये ॥२१७-२२०॥ वहाँपर दिव्यध्वनिको और योगको रोककर निष्क्रिय हो उन्होंने मुक्ति-प्राप्ति के लिए अघाति कमौका हनन करनेवाला प्रतिमायोग ग्रहण कर लिया ।।२२।।। तत्पश्चात् उन्होंने देवगति, पाँच शरीर, पाँच संघात नामकर्म, पाँच बन्धन, तीन अंगोपांग, छह संहनन, छह संस्थान, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दोनों विहायोगति, अपर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीर, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश-कीर्ति, असातावेदनीय, नीचगोत्र और निर्माण नामकर्म इन बहत्तर संख्यावाली मुक्तिकी बाधक प्रकृतियोंको जिनोत्तम वर्धमान स्वामीने योगशक्तिसे अयोगिगुणस्थानमें चढ़कर चौथे महाशुक्लध्यानरूप खड्गसे अपने शत्रुओंको सुभटके समान उस गुणस्थानके द्विचरम समयमें एक साथ क्षय कर दिया ॥२२२२२८॥ तत्पश्चात् आदेयनाम, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यायु, पर्याप्तिनाम, त्रस, बादरनाम, सुभग, यशःकीर्ति, सातावेदनीय, उच्चगोत्र और तीर्थकरनामकमे इन तेरह प्रकृतियोंको वर्धमानतीर्थश्वरने उसी शुक्ल ध्यानके द्वारा अयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें क्षय कर दिया ।।२२९-२३१।। इस प्रकार शुभ कार्तिक मासकी अमावस्या तिथिके दिन स्वाति नक्षत्रमें श्रेष्ठ प्रभात समय समस्त कर्मशत्रुओंके तीनों शरीरोंका विनाश कर उस निर्मल आत्माने ऊर्ध्वगति स्वभाव होनेसे ऊपर जाकर निर्वाण ( मोक्ष ) को प्राप्त किया ॥२३२-२३३।। वहाँपर क्षायिक सम्यक्त्व आदि आठ गुणस्वरूप सिद्धपनाको प्राप्त कर वे अमूर्त वर्धमान सिद्धपरमेष्ठी उपमा-रहित, विषयातीत, परद्रव्योंके सम्बन्धसे रहित, दुःखोंसे रहित, बाधाओंसे रहित, २८ For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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