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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१५ १९.२०२] एकोनविंशोऽधिकारः इति संबोधनोपायैर्वाक्यैस्तीर्थादिसूचकैः । अहंदासो बलात्तस्य तीर्थमौल्यमपाकरोत् ॥ १८९॥ तत्र पञ्चाग्निमध्यस्थं तापसं वीक्ष्य सोऽवदत् । पश्य मदर्शने सन्ति बह्वीदृशास्तपस्विनः ॥१९०॥ अर्हहासः स तद्गर्वहानये तममाषत । तापसं तपसोऽनेकैः कौलिकागमभावणैः ॥१९॥ ततस्तं निर्मदं कृत्वा जैनोऽवादीदिति स्फुटम् । मद्रेते किं तपः कतुं क्षमाः स्युः कुतपस्विनः ।।१९२॥ किन्तु देवा महान्तोऽत्र सर्वज्ञा एव भूतले । निर्ग्रन्था गुरवो वन्द्याः कार्यों धर्मो दयामयः ॥१९३॥ जिनोक्तमेव सिद्धान्त तथ्यं विश्वासदीपकम् । जिनं च शासनं वन्यं शरणं च तपोऽनघम् ॥१९॥ एतेषां निश्चयं कृत्वा गृहाण मित्र दर्शनम् । कुमार्ग शत्रुवत्त्यक्त्वा धर्ममूलं सुखाकरम् ॥१९५॥ इति तद्बोधनं श्रुत्वा नत्वा तं सुन्दरो मुदा । काललव्ध्याददौ त्यक्त्वा मिथ्यात्वं दर्शनं वृषम् ॥१९६॥ ततो मित्रत्वमापन्नौ ह्याटवीगहनान्तरे । गच्छन्तौ प्रापतुः पापोदयादिग्मूढतां द्विजौ ॥१९७॥ तत्रैवामानुषेऽरण्ये जीवनोपायवर्जिते । विदित्वा शरणं चैकं जिनधर्म जिनाधिपम् ॥१९८॥ हित्वाहारशरीरादीन प्रोत्साहं प्रविधाय तौ। संन्यासं शिवसिद्धयर्थमगृह्णातां बुधोत्तमौ ॥१९॥ ततः सोढ्वातिधैर्येण क्षुत्तृषादिपरीषहान् । मुक्त्वा समाधिना प्राणान् शुभध्यानेन तौ द्विजौ ॥२०॥ तदाचारोत्थपुण्येन सौधर्मेऽतिमहर्धिकौ । अभूतां सुरसंसेव्यौ देवौ दिव्यसुखोदयौ ॥२०१॥ तत्र भुक्त्वामरं सौख्यं चिरं च्युत्वा शुभोदयात् । स सुन्दरचरो नाकी ततः श्रेणिकभूपतेः ॥२०२॥ लिए हे भद्र, यह गंगा तीर्थ नहीं है, किन्तु अर्हन्तदेव ही तीर्थ हैं और उनका वचनरूप अमृत जल ही जीवोंकी शुद्धि करनेवाला और अन्तरंग मलका विनाशक है ।।१८८॥ इस प्रकार तीर्थादिके सूचक सम्बोधनात्मक वचनोंसे अहंद्दासने हठात् उसकी तीर्थमूढ़ता दूर की ॥१८९।। वहीं कुछ दूरपर गंगाके किनारे ही पंचाग्निके मध्यमें बैठे किसी तापसको देखकर वह विप्रपुत्र बोला-देखो, मेरे मतमें ऐसे-ऐसे बहुत-से तपस्वी हैं।।१९०॥ तब उस अहंदासने उसके गर्वको दूर करनेके लिए कौलिकशास्त्रके तपसम्बन्धी अनेक वचनोंके द्वारा उस तापसके साथ सम्भाषण किया और अपनी प्रबल युक्तियोंसे उसे मद-रहित करके उस जैनीने उस ब्राह्मणपुत्रसे स्पष्ट कहा-हे भद्र, ये कुतपस्वी क्या सच्चा तप करनेके लिए समर्थ हैं ? अर्थात् नहीं हैं । किन्तु इस भूतलपर सर्वज्ञदेव ही सच्चे महान् देव हैं, परिग्रहरहित निर्ग्रन्थ साधु ही सच्चे साधु हैं और वे ही वन्दनीय हैं। मनुष्यको दयामयी धर्म ही सेवन करना चाहिए ॥१९१-१९३।। जिनदेवके द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्त ही सत्य है और वही विश्वकी सर्व वस्तुओंका दर्शक है, जिनशासन ही वन्दन करनेके योग्य है और हिंसादि पापोंसे रहित निर्दोष तप ही प्राणियोंको शरण देनेवाला है ॥१९४|| इसलिए हे मित्र, कुमार्गको शत्रुके समान छोड़कर इन सत्यार्थ देव-शास्त्र-गुरु और दयामयी धर्मका निश्चय करके सम्यग्दर्शनको ग्रहण करो। यह सम्यग्दर्शन ही धर्मका मूल है और सर्व सुखोंकी खानि है ॥१९५।। इस प्रकार उस अहंहासके सम्बोधक वचनोंको सुनकर उस सुन्दर विप्रपुत्रने हर्षके साथ मिथ्यादर्शनको छोड़कर काललब्धिके प्रभावसे सत्यधर्मको ग्रहण कर लिया ॥१९६।। तत्पश्चात् मित्रताको प्राप्त वे दोनों द्विज गहन अटवीके मध्य में जाते हुए पापोदयसे दिग्मूढ़ताको प्राप्त हो गन्तव्य दिशा भूल गये ॥१९७।। जीवनके उपायसे रहित निर्जन वनमें एकमात्र जिनेन्द्रदेव और जिनधर्मको ही शरण जानकर उन दोनों उत्तम ज्ञानियोंने आहार-शरीर आदिका त्याग कर और उत्साहको धारण कर मुक्तिकी सिद्धिके लिए संन्यासको ग्रहण कर लिया ॥१९८-१९९।। तदनन्तर अति धैर्यके साथ क्षुधा तृषादि परीषहोंको सहनकर और शुभध्यानसे समाधिपूर्वक प्राणोंको छोड़कर वे दोनों ब्राह्मण इस व्रताचरणसे उपार्जित पुण्यके द्वारा सौधर्मस्वर्गमें भारी ऋद्धिके धारक अनेक सुरोंसे पूजित एवं दिव्य सुखोंके भोक्ता देव हुए ॥२००-२०१॥ वहाँपर पुण्योदयसे देव-सम्बन्धी सुखको चिरकाल तक भोगकर वह सुन्दर For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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