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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८.८६] अष्टादशोऽधिकारः १९५ सम्यग्दर्शनसंशुद्धाः धर्मणानेन भूतले । भुक्त्वा त्रिलोकजं सौख्यं क्रमान्मोक्षं प्रयान्त्यही ॥२॥ इति गार्हस्थ्यधर्मेण मुदमुत्पाद्य रागिणाम् । ततः प्रीत्यै यतीनां स माह तद्धर्ममञ्जसा ॥७३॥ अहिंसादीनि साराणि महाव्रतानि पञ्च । शुभाः समितयः पञ्चहीर्याभाषेषणादिकाः ॥७॥ पञ्चेन्द्रियनिरोधाश्च लोचोऽथावश्यकानि षट् । अचेलत्वं सुरैः पूज्यमस्नानं शयनं क्षितौ ॥७५॥ अदन्तधावनं रागदूरं च स्थितिभोजनम् । एकभक्तमिमे मूलगुणा धर्मस्य योगिनाम् ॥७६॥ मूलभूताः सदादेया अष्टाविंशतिसंख्यकाः । प्राणान्तेऽपि न भोक्तव्यास्त्रिजगच्छीसुखप्रदाः ॥७॥ परीषहजयातापनादियोगा अनेकशः । बहूपवासमौनाद्याः स्युरुत्तरगुणाः सताम् ॥ ७८॥ आदौ मूलगुणान् सम्यक् प्रतिपाल्यानतिक्रमात् । पालयन्तु ततो योगिनोऽत्रोत्तरगुणवजान् ॥७९॥ उत्तमाद्या क्षमा मार्दवार्जवौ सत्यमुत्तमम् । शौचं च संयमो द्वेधा तपस्स्यागः परस्ततः ॥८॥ आकिंचन्यं महद्ब्रह्मचर्य धर्मस्य योगिनाम् । लक्षणानि दशेमानि सर्वधर्माकराणि च ॥१॥ मूलोत्तरगुणैः सर्वेः क्षमादिदशलक्षणः । जायते परमो धर्मो मोक्षदस्तद्भवे सताम् ॥४२॥ धर्मणानेन योगीन्द्रा यान्ति मोक्षं निरन्तरम् । भुक्स्वा सर्वार्थसिद्धयन्तं सौख्यं तीर्थकरादिजम् ॥४३॥ न धर्मसदृशः कश्चिद्वन्धुः स्वामी हितंकरः । पापहन्ता च सर्वत्र सर्वाभ्युदयसाधकः ॥८॥ अयेह मारतस्यार्यखण्डे कालौ प्रकीर्तितौ । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्याख्यो द्वौ चैरावते तथा ॥५॥ कोटीकोटिदशाब्धिप्रमाणायोत्सर्पिणी बुधैः । उत्सरिकथ्यते रूपबलायुर्देहशर्मणाम् ॥६॥ सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होकर उत्तम सुखोंको प्राप्त करते हैं ॥७१।। इस भूतलपर सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव इस श्रावकधर्मके द्वारा तीन लोकमें उत्पन्न सुखोंको भोग कर क्रमसे मोक्षको जाते हैं ॥७२।। इस प्रकार गृहस्थधर्मके वर्णन-द्वारा सरागी श्रावकोंको हर्ष उत्पन्न करके तत्पश्चात उन वीर प्रभूने साधुओंकी प्रीतिके लिए उनका मनिधर्म निश्चय रूपसे कहा ॥७३॥ अहिंसादि सारभूत पंच महाव्रत, ईर्या भाषा एषणा आदि पाँच शुभ समितियाँ, पाँचों इन्द्रिय-विषयोंका निरोध, केशलुंच, समता-वन्दनादि छह आवश्यक देवोंके द्वारा पूज्य अचेलकपना ( नग्नता), स्नान-त्याग, भूमि-शयन, अदन्तधावन, रागसे दूर रहते हुए खड़ेखड़े भोजन करना और एक बार ही खाना, ये योगियोंके धर्मके अट्ठाईस मूलगुण हैं। ये निश्चयधमके मूल स्वरूप हैं । इनको सदा धारण करना चाहिए। ये लोकमें लक्ष्मी और सुख देनेवाले गुण प्राणोंका अन्त होने पर भी नहीं छोड़ना चाहिए ।।७४-७७।। बाईस प्रकारकी परीषहोंका जीतना, आतापन आदि अनेक योगोंका धारण करना, अनेक प्रकारके उपवास करना, मौन-धारण करना इत्यादि मुनियोंके उत्तर गुण हैं ।।७।। आदिमें मुनिजन सम्यक् प्रकारसे क्रमका उल्लंघन नहीं करके इन अट्ठाईस मूलगुणोंका पालन कर तत्पश्चात् उत्तरगुण समूहका पालन करें ।।७९।। उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव, उत्तम सत्य शौच, दो प्रकारका संयम, दो प्रकारका तप, उत्तम त्याग, आकिंचन्य और महान् ब्रह्मचर्य ये मुनियोंके धर्म के दश लक्षण हैं, और सर्वधर्म के निधान हैं ।।८०-८१॥ सर्व मूल और उत्तर गुणोंसे और क्षमादिदशलक्षणोंसे सन्तोंको उसी भवमें मोक्ष देनेवाला परमधर्म होता है ।।८२॥ इस मुनिधर्मसे योगीन्द्रजन सर्वार्थसिद्धि तकके तथा तीर्थंकरादि पद-जनित सुखोंको भोग कर सदा मोक्षको जाते रहते हैं ।।८३।। इस लोकमें सर्वत्र धर्मके सदृश न कोई बन्धु है, न स्वामी है, न हितकारक है, न पाप-विनाशक है और न सर्व अभ्युदय-सुखोंका साधक है ॥८४॥ इस प्रकार वीर जिनेन्द्रने श्रावक-मुनिधर्मका उपदेश देकर कालका स्वरूप इस प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया-इस मनुष्य लोकमें भरतक्षेत्र स्थित आर्य खण्डमें प्रवर्तमान उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नामके दो काल कहे गये हैं। इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्रमें भी दोनों काल प्रवर्तते हैं। इनमें उत्सर्पिणी काल दश कोडाकोड़ी सागर-प्रमाण होता है। प्राणियोंके For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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