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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७.१९५] सप्तदशोऽधिकारः १८७ सहन्ते निजशक्याखिलोपसर्गपरीषहान् । क्षमाः कर्मारिधातेऽत्र धीरास्तेऽहो भवन्त्ययात् ॥१८॥ निन्दां कुर्वन्ति ये दुष्टा जिनेशां च गणेशिनाम् । सिद्धान्तस्य च निम्रन्थश्रावकादिषु धर्मिणाम् ॥१८॥ प्रशंसा पापिनां मिथ्यादेवश्रुततपस्विनाम् । तेऽयशःकर्मणा दोषाच्या निन्द्याः स्युर्जगत्त्रये ॥१८३॥ दिगम्बरगुरूणां च ज्ञानिनां गुणिनां सताम् । सशीलानां सदा भक्ति सेवां पूजां प्रकुर्वते ।।१८४॥ पालयन्ति त्रिधा शीलं समं साराखिलवतैः । शीलवन्तो भवेयुस्ते धर्मात्स्वमुंक्तिगामिनः ॥१८५॥' निःशीलान् कुगुरून दुष्टान् कुदेवशास्त्रपापिनः । भजन्ते नुतिपूजायैनिःशीला ये व्रतातिगाः ॥१६॥ सुखं वैषयिकं नित्यमीहन्तेऽन्यायकर्मणा । निःशीलास्ते भवन्त्यत्र पापाद्दुर्गतिगामिनः ॥१८७॥ गुणाब्धीनां गुरूणां च ज्ञानिनां जिनयोगिनाम् । सदृष्टीनां सदा सङ्गं कुर्वते तद्गुणाय ये ॥१८॥ तेषां संपद्यते साधं गुर्वादिगुणिभिश्च तैः । भवेत्सर्वमहान् सङ्गः स्वर्गमुक्तिगुणादिदः ॥१८९॥ संसर्गमुत्तमानां ये त्यक्त्वा कुर्वन्ति चान्वहम् । गुणध्वंसकर सङ्ग मिथ्यादृशां शठात्मनाम् ॥१९०॥ तेऽधोगामिन एवाहो इहामुत्रासुनाशिनम् । सङ्गं तद्गतिहेतु तैलंमन्ते दुर्जनैः सह ॥१९१॥ तत्त्वातत्त्वात्तशास्त्राणां गुरुदेवतपोभृताम् । धर्माधर्मादिदानानां विचारं तन्वतेऽनिशम् ।।१९२॥ सूक्ष्मबुद्ध्यात्र ये तेषां विवेकः परमो हृदि । अमुत्र विश्वदेवादिपरीक्षायां क्षमो भवेत् ॥१९३॥ देवा हि गुरवः सर्वे वन्दनीयाश्च भक्तितः । निन्दनीया न कर्तव्या विश्वे धर्माः शिवाप्तये ॥१९॥ मत्वेति ये मजन्त्यत्र कृत्स्नधर्मामरादिकान् । दुर्बुद्धया मूढतां निन्द्यास्ते लभन्ते भवे भवे ॥१९५।। दुष्कर तपोंको ध्यान, अध्ययन आदि योगोंको और कायोत्सर्गको करते हैं, तथा अपनी शक्तिसे समस्त घोर उपसर्ग और परीषहोंको सहन करते हैं, अहो गौतम, वे पुरुष उस तपस्याके प्रभावसे कर्मरूप शत्रुओंके घातनेमें समर्थ ऐसे धीर-वीर होते हैं ॥१८०-१८१।। जो दुष्ट पुरुष जिनराजोंकी, गणधरोंकी, जिनसिद्धान्तकी, निम्रन्थ साधु साध्वी, श्रावक और श्राविकादि धार्मिक जनोंकी निन्दा करते हैं, तथा पापी मिथ्या देव शास्त्र गरुओंकी प्रशंसा करते हैं. वे अयशःकीर्तिकर्मके उदयसे तीनों लोकोंमें निन्दनीय और दुःखोंसे संयुक्त होते हैं ॥१८२-१८३।। जो पुरुष दिगम्बर गुरुओंकी, ज्ञानी गुणी सज्जन और शीलवान् पुरुषोंकी सदा सेवा भक्ति और पूजा करते हैं जो त्रियोगसे सदा सारभूत सर्व व्रतोंके साथ शीलवतको पालते हैं, वे शीलवान होते हैं और शीलधर्म के प्रभावसे स्वर्ग और मुक्ति-गामी होते हैं ॥१८४-१८५।। जो व्रत-रहित जीव शील-रहित दुष्ट कुगुरुओंकी कुदेव, कुशास्त्र और पापियोंकी नमस्कार-पूजादि से सेवा-उपासना करते हैं, स्वयं शीलरहित रहते हैं, और अन्याययुक्त कार्योंके द्वारा विषय जनित सुखकी नित्य इच्छा करते हैं, वे लोग इस लोकमें निःशील और दुर्गतिगामी होते हैं ॥१८६-१८७॥ जो मनुष्य गुणोंके सागर ऐसे जिन-योगियोंकी, ज्ञानी गुरुओंकी और सम्यग्दृष्टि पुरुषोंकी उनके गुण पानेके लिए सदा संगति करते हैं उन्हें गुणी गुरु अनादि सुजनोंके साथ स्वर्ग-मुक्तिका दाता महान संगम प्राप्त होता है ॥१८८-१८९|| जो लोग उत्तम जनोंका संगम छोडकर अज्ञानी मिथ्यादष्टियोंका गण-नाशक संगम नित्य करते हैं. वे अधोगामी जीव इस लोक और परलोकमें प्राण-नाशक और दुर्गतिका कारणभूत कुसंग-दुर्जनोंका साथ सदा पाते हैं ।।१९०-१९१॥ जो पुरुष अपनी सूक्ष्म बुद्धिसे निरन्तर तत्त्व-अतत्त्वका, शास्त्रकुशास्त्रका, तथा देव, गुरु, तपस्वी, धर्म-अधर्म और दान-कुदान आदिका विचार करते रहते हैं, परलोकमें उनका विवेक सभी देव-अदेव आदिकी परीक्षा करने में समर्थ होता है ।।१९२१९३।। जो समझते हैं कि सभी देव और सभी गुरु, भक्ति पूर्वक वन्दनीय हैं, किसीकी निन्दा नहीं करना चाहिए । तथा सभी धर्म मोक्षके देनेवाले हैं, ऐसा मानकर दुर्बुद्धिसे सभी धर्मोंकी और सभी देवादिकी इस लोकमें सेवा करते हैं, वे भव-भवमें निन्दनीय एवं मूढ़ताको प्राप्त For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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