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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ श्री-वीरवर्धमानचरिते [१७.१३८ माषन्तेऽत्र हितं सत्यं वचोऽसत्यं न जातुचित् । ते विद्वांसो जगत्पूज्याः स्युः श्रुतावरणात्ययात् ॥१३८ वैराग्यं भवमोगाङ्गे जिनेन्द्रगुरुसद्गुणान् । धर्म धर्माय तत्त्वादीन् चिन्तयन्ति सदा हृदि ॥१३९॥ त्यक्त्वा ये चार्जवादीन्न कौटिल्यं दधते क्वचित् । शुभाशया भवेयुस्ते शुभाच्छुभविधायिनः ॥१४॥ परस्त्रीहरणादौ ये कौटिल्यं कुटिलाशयाः । चिन्तयन्त्यन्वहं चित्ते ह्यच्चाटनं च धर्मिणाम् ॥१४॥ तुष्यन्ति मनसा दृष्ट्वा दुराचाराणि दुर्धियाम् । पापार्जनाय जायन्ते तेऽशुभेनाशुभाशयाः ॥१४२॥ ये कुर्वन्ति सदा धर्म तपोव्रतक्षमादिभिः । सत्पात्रदानपूजाद्यैर्दृचिवृत्तैर्दुगन्विताः ॥१४३॥ ते नाकादौ सुखं भुवा पुनरुच्चेः पदाप्तये । धर्म येऽर्जयन्ति सदा पापं हिंसानृतादिभिः खलाः । दुर्बद्धया विषयासक्त्या मिथ्यादेवादिमक्तिमिः ॥१४५॥ श्वभ्रादौ तत्फलेनात्र चिरं भुङ्क्त्वाऽसुखं महत् । जायन्ते पापिनः पापात्तेऽहो तद्गतिहेतवे ॥१४६॥ ददते येऽन्वहं दानं सत्पात्रेभ्योऽतिमक्तितः । अर्चयन्ति जिनेन्द्राधी गुरुपादाम्बुजौ शुमौ ॥१७॥ विद्यमानान् बहून् भोगांस्त्यजन्ति धर्मसिद्धये । ते लभन्तेऽत्र धर्मेण महती गसंपदः ॥१४॥ सेवन्ते प्रत्यहं येऽत्र भोगानन्यायकर्मभिः । यान्ति जातु न संतोषं बहुभिर्मोगसेवनैः ॥१४९॥ पात्रदानजिनार्चा च नैव स्वप्नेऽपि कुर्वते । तेऽधपाकेन जायन्ते दीना मोगादिवर्जिताः ॥१५॥ ये तन्वन्ति सदा धर्म पूजनं च जिनेशिनाम् । वितरन्ति सुपात्रेभ्यो दानं भक्तिभराङ्किताः ॥१५॥ तपोव्रतयमादींश्चाचरन्ति लोमदूरगाः । तान् प्रति स्वयमायान्ति जगत्साराः श्रियः शुभात् ॥१५२॥ धर्मोपदेशादिके द्वारा अनेक भव्यजीवोंको बोध देते हैं, स्वयं सदा निर्मल धर्म-कर्ममें प्रवृत्ति करते हैं, हितकारी और सत्य वचन ही बोलते हैं और लोकमें कभी भी असत्य वचन नहीं बोलते हैं, वे पुरुष श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे विद्वान् और जगत्पूज्य होते हैं ॥१३६-१३८॥ जिनके हृदयमें संसार, भोग और शरीरसे वैराग्य है, जिनेन्द्र देव और सद्-गुरुके गुणोंका, धर्मका और तत्त्वादिका धर्म-प्राप्तिके लिए सदा चिन्तवन करते हैं, जो आर्जव आदि सद्-गुणोंको छोड़कर क्वचित्-कदाचित् भी कुटिलता नहीं करते हैं, वे शुभ आशयवाले पुरुष पुण्यकमके उदयसे शुभ कार्योंके करनेवाले होते है ॥१३९-१४०॥ जो कुटिल अभिप्रायवाले मनुष्य परस्त्रीहरण आदि कुटिल प्रवृत्ति करते हैं, धर्मात्माजनोंके उच्चाटनका चित्तमें सदा विचार करते रहते हैं और दुर्बुद्धियोंके दुराचारोंको देखकर मनमें सन्तुष्ट होते हैं, वे अशुभ कर्मके उदयसे पापोपार्जनके लिए अशुभ अभिप्रायवाले उत्पन्न होते हैं ॥१४१-१४२।। जो पुरुष तप, व्रत, क्षमादिके द्वारा, सत्पात्रदान-पूजादिके द्वारा, दर्शन-ज्ञान और चारित्रके द्वारा सदा धर्मको करते हैं, सम्यग्दर्शनसे युक्त हैं, वे स्वर्गादिमें सुख भोगकर पुनः उच्च पदोंकी प्राप्तिके लिए धर्म-कार्य करते हैं, वे जीव इस लोकमें धर्म के प्रभावसे धर्मात्मा उत्पन्न होते हैं ॥१४३-१४४।। जो दुष्ट मनुष्य हिंसा, झूठ आदिके द्वारा दुर्बुद्धिसे, विषयोंमें आसक्तिसे और कुदेवादिकी भक्तिसे सदा पापोंका उपार्जन करते हैं, वे जीव इस लोकमें ही चिरकाल तक दुःख भोगकर उस पाप कर्मके फलसे नरकादि गतियोंमें उत्पन्न होते हैं। अहो गौतम, वे जीव दुर्गतिको जाने के लिए पापसे पापी ही उत्पन्न होते हैं ॥१४५-१४६॥ जो पुरुष सत्पात्रोंके लिए अति भक्तिसे प्रतिदिन दान देते हैं, जिनेन्द्रदेवके और गुरुजनोंके शुभ चरण-कमलोंको पूजते हैं, और धर्मकी सिद्धिके लिए विद्यमान बहुत से भोगोंको छोड़ते हैं, वे मनुष्य इस लोकमें धर्मके द्वारा महा भोग-सम्पदाओंको पाते हैं ॥१४७-१४८॥ जो परुष इस लोकमें प्रतिदिन अन्याय और अत्याचार-परिपूर्ण कार्योंके द्वारा भोगोंको भोगते हैं, बहुत भोगोंके सेवनसे भी कभी सन्तोषको प्राप्त नहीं होते हैं, और पात्रदान, जिनपूजा आदिको स्वप्नमें भी नहीं करते हैं, वे उस पापके परिपाक द्वारा भोगोंसे रहित दीन अनाथ उत्पन्न होते हैं ॥१४९-१५०।। जो सदा धर्मका विस्तार करते हैं, जिनेशोंका पूजन करते हैं, भक्तिभारसे For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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