SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७.१०७ ] सप्तदशोऽधिकारः स्वभावमार्दवोपेता आर्जवाङ्कितविग्रहाः । सन्तोषिणः सदाचारा नित्यं मन्दकषायिणः ॥ ९२ ॥ शुद्धाय विनीताश्च जिनेन्द्र गुरुधर्मिणाम् । इत्याद्यन्यामला चारैर्मण्डिता येऽत्र जन्तवः ॥९३॥ ते लभन्तेऽन्यपाकेन चार्य खण्डे शुभाश्रिते । नृगतिं सत्कुलोपेतां राज्यादिश्रीसुखान्विताम् ॥९४॥ भक्त्योत्तम सुपात्रायान्नदानं ददतेऽत्र थे । महाभोगसुखाकीर्णां भोगभूमिं ब्रजन्ति ते ॥ ९५ ॥ येsa मायाविनो मर्त्या अतृप्ताः कामसेवने । विकारकारिणोऽङ्गादौ योषिद्वेषादिधारिणः ॥९६॥ मिथ्यादृशश्च रागान्धा निःशीला मूढचेतसः । नार्यो भवन्ति ते लोके मृत्वा स्त्रीवेदपाकतः ॥९७॥ शुद्धाचरणशीला या मायाकौटिल्यवर्जिताः । विचारचतुरा दक्षा दानपूजादितत्पराः ||१८|| स्वल्पाक्षशर्मसंतोषान्विता दृग्ज्ञानभूषिताः । नार्यः पुंवेदपाकेन जायन्तेऽत्र च मानवाः ॥९९॥ अतीव कामसेवान्धाः परदारादिलम्पटाः । अनङ्गक्रीडनासक्ता निःशोला व्रतवर्जिताः ॥१००॥ नीचधर्मरता नीचा नीचमार्गप्रवर्तिनः । ये ते नपुंसकाः स्युश्च क्लीत्रवेदवशाज्जडाः ॥ १०१ ॥ कारयन्ति पशूनां येsतिभारारोपणं शठाः । घ्नन्ति पादेन सत्वांश्रेक्षणादतेऽध्वगामिनः ॥ १०२ ॥ कुती पापकर्मा गच्छन्ति निर्देयाशयाः । मृत्या ते पङ्गवो निन्द्याः स्युराङ्गोपाङ्गकर्मणा ॥१०३॥ अश्रुतं परदोषादि श्रुतं वदन्ति चेर्षया । शृण्वन्ति परनिन्दां ये विकथां दुःश्रुतिं जडाः ॥ १०४ ॥ केवलिश्रुतसङ्घानां दूषणं चात्र धर्मिणाम् । मत्रेयुर्बधिरास्ते कुज्ञानावरणपाकतः ॥ १०५॥ ब्रुवन्त्यत्रेय यादृष्टदृष्टं ये परदूषणम् । कुर्युर्नेत्रविकारं व पश्यन्त्यादरतः खलाः ॥१०६॥ परस्त्रीस्तनयोन्यास्यान् कुतीर्थ देवलिङ्गिनः । तेऽतीव दुःखिनोऽन्धाः स्युश्चक्षुरावरुणोदयात् ॥१०७॥ For Private And Personal Use Only १८१ • जो स्वभाव से मृदुता युक्त हैं, जिनका शरीर सरलतासे संयुक्त है, सन्तोषी हैं, सदाचारी है, सदा जिनकी कषाय मन्द रहती है, शुद्ध अभिप्राय रखते हैं, विनीत हैं, जिनेन्द्र देव, निर्ग्रन्थ गुरु और जिनधर्मका विनय करते हैं, इन तथा ऐसे ही अन्य निर्मल आचरणोंसे जो जीव यहाँपर विभूषित होते हैं, वे पुण्य के परिपाकसे शुभके आश्रयभूत आर्यखण्ड में सत्कुलसे युक्त, राज्यादि लक्ष्मीके सुखसे भरी हुई मनुष्यगतिको प्राप्त करते हैं । ९२ - ९४ || जो पुरुष भक्तिसे उत्तम सुपात्रोंको यहाँपर आहारदान देते हैं, वे महान् भोगों और सुखोंसे भरी हुई भोगभूमिको जाते हैं ||१५|| जो मनुष्य यहाँपर मायावी होते हैं, काम सेवन करनेपर भी जिनकी तृप्ति नहीं होती, शरीरादिमें विकारी कार्य करते हैं, स्त्री आदिके वेषको धारण करते हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, रागान्ध हैं, शील-रहित हैं और मूढचित्त हैं, ऐसे मनुष्य मरकर स्त्रीवेदके परिपाकसे इस लोकमें स्त्री होते हैं । ९६-२७।। जो शुद्धाचरणशाली हैं, माया कुटिलता से रहित हैं; हेय-उपादेयके विचारमें चतुर हैं, दक्ष हैं, दान-पूजादिमें तत्पर हैं, अल्प इन्द्रियसुखसे जिनका चित्त सन्तोष युक्त है, और सम्यग्दर्शन- ज्ञान से विभूषित हैं, ऐसी स्त्रियाँ पुरुषवेदके परिपाकसे यहाँपर मनुष्य होती हैं ॥ ९८-९९ || जो पुरुष काम सेवन में अत्यन्त अन्ध ( आसक्त ) होते हैं, परस्त्री- पुत्री आदिमें लम्पट है, हस्तमैथुनादि अनङ्गक्रीड़ा में आसक्त रहते हैं, शील-रहित हैं, व्रत-रहित हैं, नीच धर्म में संलग्न हैं, नीच हैं और नीच मार्ग के प्रवर्तक हैं; ऐसे जड़ जीव नपुंसक वेदके वशसे नपुंसक होते हैं ।। १००-१०२॥ जो शठ पशुओं के ऊपर उनकी शक्तिसे अधिक भारको लादते और लदवाते हैं, पैरोंसे प्राणियोंको मारते हैं, बिना देखे मार्गपर चलते हैं; कुतीर्थ में और पाप कार्यादिमें जाते हैं, ऐसे निर्दय चित्तवाले निन्द्य जीव मरकर अंगोपांगनामकर्मके उदयसे पंगु ( लँगड़े ) होते हैं ||१०२-१०३ ।। जो जड़ लोग नहीं सुने हुए भी पर-दोषोंको ईर्ष्यासे कहते हैं, पर निन्दा, farer और शास्त्रों सुनते हैं, केवली भगवान् श्रुत संघ और धर्मात्माओंको दूषण लगाते हैं, वे कुज्ञानावरणकर्मके विपाकसे बधिर ( बहरे ) होते हैं ।। १०४-१०५ ॥ जो अन्य लोगोंके देखे या अनदेखे दूषणोंको कहते हैं, नेत्रों की विकार युक्त चेष्टा करते हैं, जो दुष्ट
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy