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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६.१५३] षोडशोऽधिकारः १७१ यावानाकाश एवात्र व्याप्तो ह्येकाणुना बुधैः । तावानाकाश एकप्रदेशः प्रोक्तोऽवगाहदः ॥१३९॥ रागादिदूषितेनैव येन मावेन रागिणाम् । आसवन्त्यत्र कर्माणि स मावास्रव एव हि ॥१४॥ दुर्भावकलिते जीवे पुद्गलानां य आगमः । प्रत्ययैः कर्मरूपेण द्रव्यास्रवो मतोऽत्र सः ॥१४॥ विस्तरेणास्रवस्यास्य मिथ्यात्वाद्याश्च हेतवः । प्रागुता एव विज्ञेया अनुप्रेक्षास्थले मया ॥१४२॥ चेतनापरिणामेन रागद्वेषमयेन च । येन कर्माणि बध्यन्ते भावबन्धः स एव हि ॥१४३॥ भावबन्धनिमित्तेन संश्लेषो जीवकर्मणोः । योऽसौ चतुःप्रकारोऽत्र द्रव्यबन्धी बुधैः स्मृतः १४४॥ प्रकृतिः स्थितिबन्धोऽनुभाग: प्रदेशसंज्ञकः । इति चतुर्विधो बन्धः सर्वानकिरोऽशुमः ॥१४५॥ प्रकृत्यादिप्रदेशाख्यौ बन्धौ योगैः प्रकीर्तितौ । कषायैर्मुनिभिः स्थित्यनुभागी देहिनां खलौ ॥१४६॥ ज्ञानावरणकर्माणि मतिज्ञानादिसद्गुणान् । आच्छादयन्ति जीवानां देवास्यानि यथा पटाः ।।१४७॥ दर्शनावरणान्यत्र चक्षुरादिसुदर्शनान् । वारयन्ति स्वकार्यादौ द्वारपाला यथागतान् ॥१४॥ मधुलिप्तासिधारेव वेदनीयविधिनृणाम् । सर्षपामं सुखं दत्ते दुःख मेरुसमं परम् ॥१४९॥ मद्यवद्विकलान् कुर्यान्मोहनीयं शठात्मनः । दृष्टिज्ञानविचारादौ चारित्रे धर्मकर्मणि ॥१५॥ कायबन्दिगृहाजीवान् गन्तुमायुर्ददाति न । दुःखशोकादिसंपूर्णान् शृङ्खलेवाशुभाकरान् ॥१५॥ चित्रकार इवानेकरूपान् कुर्याञ्च जन्मिनाम् । नामकर्माहिमार्जारसिंहेमनृसुरादिकान् ॥१५२॥ गोत्रकर्मनृणां दध्याद् गोत्रं लोकत्रयार्चितम् । उत्तमं च जनैर्निन्धं कुम्मकार इवान्वहम् ॥१५३॥ होते हैं । अतएव कालके बिना शेष पाँच द्रव्य 'अस्तिकाय' कहलाते हैं। कालके साथ वे ही सब श्री जिनागममें षद्रव्य कहे गये हैं ॥१३७-१३८।। इस लोकमें जितना आकाश एक अणुके द्वारा व्याप्त है, उतना आकाश ज्ञानियों के द्वारा एक प्रदेश कहा गया है। वह एक प्रदेश भी अपनी अवगाहनाशक्तिसे समस्त परमाणओंको अवगाह देने की शक्ति रखता है ॥१३ रागी जनोंके रागादिसे दूषित जिस भावके द्वारा कर्म आत्माके भीतर आते हैं, वह भावास्रव है ॥१४०॥ दुर्भाव-संयुक्त जीवमें मिथ्यात्व आदि कारणोंसे पुद्गलोंका कर्मरूपसे जो आगमन होता है, वह जैनागममें द्रव्यास्रव माना गया है ॥१४१।। इस आस्रवके मिथ्यात्व आदि कारण विस्तारसे मैंने पहले अनुप्रेक्षाके स्थलपर कहे हैं, उन्हें जान लेना चाहिए।।१४२।। जीवके राग-द्वेषमयी जिस चेतन परिणामसे कर्म बँधते हैं, वह भावास्रव है ॥१४३॥ उस भावबन्धके निमित्तसे जीव और कर्मका जो परस्पर संश्लेष होता है, वह ज्ञानियोंके द्वारा द्रव्यबन्ध माना गया है । यह चार प्रकारका है-१. प्रकृतिबन्ध, २. स्थितिबन्ध, ३. अनुभागबन्ध और ४. प्रदेशबन्ध । यह चारों ही प्रकारका बन्ध अशुभ है और समस्त अनर्थोकी खानि है ॥१४४-१४५॥ इनमेंसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगोंसे होते हैं और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध कषायोंसे होते हैं, ये सब प्राणियोंको दुःख देते है। ऐसा मुनिजनोंने कहा है ॥१४६।। ज्ञानावरणकर्म जीवोंके मतिज्ञानादि सद्-गुणोंको आच्छादित करता है । जैसे कि वस्त्र देवमूर्तियोंके मुखोंको आच्छादित करते हैं॥१४७॥ दर्शनावरणकर्म चक्षदर्शन आदि दर्शनोंको रोकता है । जैसे कि द्वारपाल राजासे मिलनेके लिए आये हुए लोगोंको अपने कार्य आदि करनेमें रोकता है ।।१४८।। मधुलिप्त खड्गधाराके समान वेदनीय कर्म मनुष्योंको सुख तो सरसोंके समान अल्प देता है और दुःख मेरुके समान भारी देता है ।।१४९॥ मोहनीयकर्म मूढजनोंको मदिराके समान सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और धर्म-कर्मादिके विचारमें विकल करता है ।।१५०॥ आयुकर्म शरीररूपी बन्दीगृहसे जीवोंको इच्छानुसार अभीष्ट स्थानपर नहीं जाने देता है और साँकलसे जकड़े हुए के समान दुःख शोक आदि समस्त अशुभ वेदनाओंका आकर है ॥१५१।। नामकर्म चित्रकारके समान जीवोंके साँप, मार्जार, सिंह, हाथी, मनुष्य और देवादिके अनेक रूपोंको करता है ॥१५२।। गोत्रकर्म कुम्भकारके समान कभी तीन For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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