SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६.९६ । षोडशोऽधिकारः विज्ञायेति परित्यज्य मूढत्वं निखिलात्मसु । अन्तरात्मपदं ग्राह्यं परमात्मपदाप्तये ॥८३॥ सकलेतरभेदेन परमात्मा द्विधा भवेत् । सकलो दिव्यदेहस्थो निष्कलो देहवर्जितः ॥८४॥ यो घातिकर्मनिर्मुक्तो नवकेवललब्धिवान् । त्रिजगन्नृसुरैः सेव्यो ध्येयो नित्यं मुमुक्षुमिः ॥८५॥ धर्मोपदेशहस्ताभ्यां भव्यानुद्ध मुद्यतः । भवाब्धौ पतनादक्षः सर्वज्ञो महतां गुरुः ॥८६॥ धर्मतीर्थकरोऽन्यो वा केवली विश्ववन्दितः। दिव्यौदारिककायस्थः समस्तातिशयाक्रितः ॥८७॥ धर्मामृतमयीं वृष्टिं कुर्वल्लोकेऽप्यनारतम् । स्वर्गमुक्तिफलाप्त्य परमात्मा सकलो हि सः ॥४८॥ अयमेव जगन्नाथः सेव्यस्तत्पदकाङ्क्षिभिः । अनन्यशरणीभूय तत्पदाय जिनाग्रणीः ॥८९॥ कृत्स्नकर्माङ्गनिर्मुक्तोऽभूतों ज्ञानमयो महान् । त्रिजगच्छिखरावासो गुणाष्टकविभूषितः ॥१०॥ बिजगन्नाथसंसेव्यः सिद्धो वन्द्यो मुमुक्षभिः । निष्कलः परमात्मा स जगञ्चूडामणिर्महान् ॥९॥ ध्येयोऽयं मुक्तिसिद्धयर्थ मनः कृत्वातिनिश्चलम् । सिद्धो विश्वाग्रिमो नित्यं परमेष्टी शिवार्थिमिः ॥१२॥ यादृशं परमात्मानं ध्यायेद्योगी गतभ्रमः । तादृशं परमात्मानं शिवीभूतं लभेत मोः ॥१३॥ उत्कृष्टो बहिरात्मा गुणस्थाने प्रथमे मतः । द्वितीये मध्यमो दर्जधन्यस्तृतीये शठः ॥१४॥ जघन्योऽन्तरात्मा स्याद्गुणस्थाने चतुर्थके । ज्येष्टो द्वादशमेऽनन्तकेवलज्ञानकारकः ॥१५॥ तयोर्मध्ये गुणस्थानाः सन्ति सप्तव ये शुमाः । तेष्वनेकविधो मध्यमोऽन्तरात्मा शिवाध्वगः ॥२६॥ वैभवको भोगता है ।।८२॥ ऐसा जानकर सर्व आत्माओंमें मूढपना छोड़कर परमात्मपदकी प्राप्तिके लिए अन्तरात्माका पद ग्रहण करना चाहिए ।।८३॥ सकल (शरीर-सहित ) और निष्कल ( शरीर-रहित ) के भेदसे परमात्मा दो प्रकारका है । परमौदारिक दिव्य देहमें स्थित अरिहन्त सकल परमात्मा हैं और देह-रहित सिद्ध भगवन्त निष्कल परमात्मा हैं ।।८४।। जो चार घातिया कर्मोसे विमुक्त हैं, अनन्तज्ञान आदि नौ केवललब्धियोंके धारक हैं, तीन लोकके मनुष्य और देवोंसे सेव्य हैं, मुमुक्षजनोंके द्वारा नित्य ध्यान किये जाते हैं, धर्मोपदेशरूपी हाथोंसे भव-सागरमें गिरते हुए भव्य जीवोंके उद्धार करनेके लिए उद्यत हैं, दक्ष हैं, सर्वज्ञ हैं, महात्माओंके गुरु हैं, धर्मतीर्थ के स्थापक तीर्थंकर केवली हैं, अथवा सामान्य केवली हैं, विश्ववन्दित हैं, दिव्य औदारिकदेहमें स्थित हैं, समस्त अतिशयोंसे युक्त हैं और जो भव्य जीवोंको स्वर्ग-मुक्तिका फल प्राप्त करानेके लिए लोकमें निरन्तर धर्मामृतमयी दृष्टिको करते रहते हैं, वे सकल परमात्मा हैं ।।८५-८८।। यही जिनाग्रणी जगन्नाथ सकल परमात्मपदके आकांक्षी लोगोंके द्वारा उस पदकी प्राप्तिके लिए अनन्यशरण होकर सेवनीय हैं ।।८।। जो सर्व कर्मोंसे और शरीरसे रहित हैं, अमूर्त हैं, ज्ञानमय है, महान हैं, तीन लोकके शिखरपर जिनका निवास है, क्षायिकसम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे विभूषित हैं, तीन लोकके अधीश्वरोंके द्वारा संसेव्य हैं, मुमुक्षु जनोंके द्वारा वन्द्य हैं और जगच्चूड़ामणि हैं, ऐसे महान् सिद्ध भगवान् निष्कल परमात्मा हैं ।।९०-९१।। शिवार्थी जनोंको मुक्तिकी सिद्धिके लिए मनको अति निश्चल करके विश्वके अग्रणी यही सिद्ध परमेष्ठी नित्य ध्यान करनेके योग्य हैं ॥९२।। हे गौतम, भ्रम-रहित होकर योगी पुरुष जैसे परमात्माका ध्यान करता है, वह उसी प्रकार शिवस्वरूप परमात्माको प्राप्त करता है ॥१३॥ जो शठ प्रथम गुणस्थानमें निवास करता है, वह उत्कृष्ट अर्थात् सबसे निकृष्ट बहिरात्मा है। जो द्वितीय गुणस्थानमें रहता है, वह मध्यम जातिका बहिरात्मा है। और जो तृतीय गुणस्थानमें वास करता है, उसे दक्ष पुरुषोंने जघन्य बहिरात्मा कहा है ।।९४॥ चौथे गुणस्थानमें रहनेवाला जघन्य अन्तरात्मा है, बारहवें गुणस्थानमें रहनेवाला और अन्तर्मुहूर्तमें ही केवलज्ञानको उत्पन्न करनेवाला है, वह उत्कृष्ट अन्तरात्मा है । चौथे और बारहवें इन दोनों For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy