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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६२ श्री-वीरवर्धमानचरिते [१६.१५लभ्यन्ते कर्मणा केन वियोगाः स्वजनादिभिः । संयोगाश्चेष्टबन्ध्वाधः समं वेहितवस्तुभिः ॥१५॥ दातृत्वं कृपणत्वं च गणित्वं गुणहीनताम् । परकिङ्करतां स्वामित्वं श्रयेत् केन कर्मणा ॥१६॥ न जीवन्ति नृणां पुत्रा विधिना केन भूतले । बन्ध्यत्वं वा मवेन्निन्धं स्युः सुताश्चिरजीविनः ॥१७॥ कातरत्वं च धीरत्वं निन्द्यत्वं निर्मलं यशः। प्राप्यते विधिना केन निःशीलत्वं सुशीलता ॥१८॥ सत्सङ्गश्चातिदुःसङ्गो विवेकित्वं च मूढता । कुलश्रेष्टं जनैर्निन्द्यिं लभ्यते केन हेतुना ॥१९॥ मिथ्यामार्गानुरागित्वं जिनधर्मातिरक्तताम् । दृढं कायं च निःशक्तं लभन्ते केन कर्मणा ॥२०॥ मुक्तः को मार्ग एवात्र फलं किंवा सुलक्षणम् । यतीनां कः परो धर्मः कोऽन्यो वा गृहमेधिनाम् ॥२१॥ तयोः किं सत्फलं पंसां कानि वा कारणान्यपि । धर्मोत्पत्तिविधातणि शुभान्याचरणानि च ॥२२॥ द्विषट्कालस्वरूपं च कीदृशं कीदृशी स्थितिः । त्रैलोक्यस्य शलाकाः पुरुषाः के स्युर्महीतले ॥२३॥ किमत्र बहुनोक्तन भूतं भावि च साम्प्रतम् । त्रिकालविषयं ज्ञानं द्वादशाङ्गमवं च यत् ॥२४॥ तत्सर्वं त्वं कृपान.थ दिव्येन ध्वनिना दिश । भन्यानामुपकाराय स्वर्गमुक्तिवृषाप्तये ॥२५॥ इति प्रश्नवशाद्देवो विश्वभव्य हितोद्यतः । तत्त्वादिप्रश्नराशीनां सद्भावं च तदीप्सितम् ॥२६॥ दिव्येन ध्वनिना तीथेट स्वर्गमुक्तिसुखाप्तये । प्रारंभे वक्तुमित्थं च मुक्तिमार्गप्रवृत्तये ॥२७॥ शृणु धीमन् मनः कृत्वा स्थिरं सर्वगणैः समम् । प्रोच्यमानमिदं सर्व त्वदभिप्रेतसाधनम् ॥२८॥ प्रोक्तुविभोर्मनाग नासीदोष्ठादिस्पन्दविक्रिया। मुखाब्जे साम्यतापन्ने तथापि तन्मुखाम्बुजात् ।।२९॥ निर्धन होते हैं ॥१४॥ किस कर्मसे जीव अपने इष्ट जनादिकोंसे वियोग पाते हैं और किस कर्मसे इष्ट-बन्धु आदिके तथा अभीष्ट वस्तुओंके साथ संयोग प्राप्त करते हैं ॥१५॥ किस कर्मसे मनुष्य दानशीलता, कृपणता, गुणशालिता-गुणहीनता, स्वामित्व और परदासत्वको प्राप्त होता है ॥१६॥ किस कर्मसे इस संसारमें मनुष्यों के पुत्र नहीं जीते हैं और किस कमसे चिरजीवी पुत्र उत्पन्न होते हैं ? तथा कैसे कर्म करनेसे स्त्रियोंके निन्द्य बन्ध्यापन होता है ।।१७।। किस कर्मसे जीवोंके कायरता-धीरता, अपयश-निर्मल यश और कुशीलता-सुशीलता प्राप्त होती है ॥१८॥ किस कारणसे जीव सत्संग-कुसंग, विवेकिता-मढता, श्रेष्ठकुल और निन्द्यकुल प्राप्त करते हैं ।।१९।। किस कर्मसे मनुष्य मिथ्यामार्गानुरागी और जिनधर्मानुरक्त होते हैं, तथा दृढ़ ( सबल ) काय और निर्बल कायको पाते हैं ॥२०॥ इस संसारमें मुक्तिका क्या मार्ग है, उसका क्या लक्षण और क्या फल है ? साधुओंका परम धर्म कौन सा है और गृहस्थोंका अपर धर्म क्या है ॥२१॥ पुरुषोंको इन दोनों धर्मोके सेवनसे क्या सत्फल प्राप्त होता है ? धर्मकी उत्पत्ति करनेवाले कौनसे कारण हैं और शुभ आचरण कौनसे हैं ।।२२।। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके छहों कालोंका क्या स्वरूप है, उसकी स्थिति कैसी है, और इस महीतलपर तीन लोकमें प्रसिद्ध शलाका (गण्य-मान्य ) कौन होते हैं ॥२३॥ इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या ? हे कृपानाथ, जो पहले हो चुका है, वर्तमानमें हो रहा है और आगे होगा ? ऐसा त्रिकाल-विषयक द्वादशाङ्गश्रुतजनित जो ज्ञान है, वह सब कृपा करके भव्यजीवोंके उपकारके लिए और उन्हें स्वर्गमुक्तिके कारणभूत धर्मकी प्राप्ति के लिए अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा उपदेश दीजिए ॥२४-२५।। इस प्रकार गौतमस्वामीके प्रश्नके वासे संसारके समस्त भव्य जीवोंके हित करनेके लिए उद्यत, तीर्थंकर वर्धमानदेवने मुक्तिमार्गकी प्रवृत्तिके लिए सप्त तत्त्वादि-विषयक समस्त प्रश्न-समूहोंका सद्भाव और उनका अभीष्ट अभिप्राय जीवोंको स्वर्ग और मोक्षके सुख प्राप्त करानेके लिए दिव्य ध्वनिसे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया ।२६-२७॥ भगवान्ने कहाहे धीमन् , सर्वगणके साथ मनको स्थिर करके तुम्हारे सर्व अभीष्ट-साधक मेरा यह वक्ष्यमाण (उत्तर)-सुनो ॥२८॥ अब भगवान्ने उत्तर देना प्रारम्भ किया, तब बोलते समय प्रभुके For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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