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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-बीरवर्धमानचरिते [१४.१७६भाति तत्परमं पीठं जित्वा तेजांसि नाकिनाम् । स्वांशुभिर्हसतीवात्रानेकमङ्गलसंपदा ॥१७६॥ तस्योपरि जगत्सारा पृथ्वीं गन्धकुटी पराम् । रैराड् निवेशयामास तेजोमूर्तिमिवाद्भुताम् ॥१७॥ भाति सार्थकनाम्नी सा सुगन्धीकृतखाङ्गणा । दिव्यगन्धमहाधूपनानास्त्रक पुष्पवर्णनैः ॥१७८॥ तस्या यां यक्षराट्चक्रे दिव्यां हि रचनां पराम् । नानाभरणविन्यासैर्मुक्काजालैर्गतोपमैः ।। १७९।। हैमैर्जालेस्तरां स्थूलैः स्फुरत्नस्तमोपहैः । तां को वर्णयितुं शक्तो बुधः श्रीगणिनं विना ॥१०॥ तस्या मध्ये व्यधाद् रैदः परार्ध्यमणिभूषितम् । हैम सिंहासनं दिव्यं स्वप्रभाजितभास्करम् ।। १८॥ विष्टरं तदलंचक्रे कोट्यादित्याधिकप्रमः । भगवान् श्रीमहावीरस्त्रिजगन्नव्यवेष्टितः ॥१८॥ अनन्तमहिमारूढो विश्वाङ्गयुद्धरणक्षमः । चतुर्मिरॉलैः स्वेन महिम्नाऽस्पृष्टतत्तलः ॥१८३॥ इत्थं श्रीजिनपुङ्गवो बुधनुतो विश्चैकचूडामणिः संप्राप्तः परमां विभूतिमतुलां बाह्यां सुरैः कल्पिताम् । अन्तातीतगुणैः समं निरुपमैः कैवल्यभूत्या च यस्तं लोकैकपितामहं गुणगणैः श्रीवर्धमानं स्तुवे ।। १८४।। यो लोकत्रयतारणकचतुरः कर्मारिविध्वंसक आस्ते दिव्यसभागणैः परिवृतो धर्मोपदेशोद्यत: । नो निष्कारणबान्धवस्त्रिजगति श्रीवीरनाथो महां ल्लब्ध्वानन्त चतुष्टयः स्वशिरसा तद्धतये नौमि तम् ।।१८५॥ अन्धकारके समूहको विध्वस्त करनेवाला, सर्वरत्नमयी तेजस्वी तृतीय पीठ था ॥१७५|| यह परम पीठ अपनी उज्ज्वल किरणोंके द्वारा और अनेक मांगलिक सम्पदासे देवोंके तेजोंको जीतकर हँसता हुआ शोभित हो रहा था ॥१७६।। इस तीसरे पीठके ऊपर कुबेरराजने जगत्में सारभूत उत्कृष्ट गन्धकुटी नामकी पृथ्वीको रचा था जो कि अद्भुत तेजोमूर्तिके समान थी ॥१७॥ वह दिव्य सुगन्धीवाले धूपोंसे, और नाना प्रकारके पुष्पोंकी वर्षासे गगनांगणको सगन्धित करती हुई अपना 'गन्धकटी' यह नाम सार्थक कर रही थी ॥१७८॥ यक्षराजने उस गन्धकुटीकी दिव्य रचना नाना प्रकारके आभरण-विन्यासोंसे, उपमा-रहित मुक्ताजालोसे, सुवर्ण-जालोंसे, स्थूल, स्फुरायमान और अन्धकार-विनाशक रत्नोंसे की थी, उसकी शोभाका वर्णन करनेके लिए श्री गणधरदेवके बिना और कौन बुद्धिमान् समर्थ है ॥१७९-१८०|| उस गन्धकुटीके मध्यमें यक्षराजने अनमोल उत्कृष्ट मणियोंसे भूषित, अपनी प्रभासे सूर्यकी प्रभाको जीतनेवाला, स्वर्णमयी दिव्य सिंहासन बनाया था ॥१८१॥ उस सिंहासनको कोटिसूर्यकी प्रभासे अधिक प्रभावाले और तीन लोकके भव्यजीवोंसे वेष्टित श्री महावीर प्रभु अलंकृत कर रहे थे ॥१८२॥ उसपर अनन्त महिमाशाली, विश्वके सर्वप्राणियों के उद्धार करने में समर्थ, और अपनी महिमासे सिंहासनके तलभागको चार अंगुलोंसे नहीं स्पर्श करते हुए भगवान् अन्तरिक्षमें विराजमान थे ।।१८३॥ इस प्रकार विद्वज्जनोंसे नमस्कृत, विश्वके एकमात्र चूडामणि, जिनश्रेष्ठ श्रीवीरप्रभुने देवों द्वारा रचित बाहरी अतुल उत्कृष्ट समवशरण विभूतिको, तथा अनुपम अनन्त गुणोंके साथ केवल विभूतिको प्राप्त किया, उन लोकके अनुपम पितामह श्री वर्धमान जिनेन्द्रकी मैं गुणगणोंके द्वारा स्तुति करता हूँ ॥१८४।। जो श्री वीरनाथ तीनों लोकोंके तारनेमें कुशल हैं, कर्म-शत्रुओंके विध्वंसक हैं, दिव्य सभागणोंसे परिवत हैं, धर्मोपदेश देने के लिए उद्यत हैं, जो तीन जगत्के जीवोंके अकारण बन्धु हैं, और अनन्त चतुष्टयको जिन्होंने प्राप्त किया है और जो महान हैं, ऐसे श्री महावीर प्रभुको मैं उनकी विभूति पानेके लिए अपना मस्तक For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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