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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ श्री-वीरवर्धमानचरिते [१४.६२ तावन्तो हि प्रतीन्द्राश्च स्वस्ववाहनसंस्थिताः । व्यन्तराखिलयोनीनां किन्नराद्यष्टधात्मनाम् ।।६२॥ परया स्वस्वसामग्रया भूषिता निर्जरावृताः। तस्कल्याणाय भूभागमुद्भिद्यागुस्तदाशु हि ॥१३॥ एते चतुर्णिकायेशाः शचीगीर्वाणभूषिताः। निमेषोज्झितसन्नेवाः परमानन्दशालिनः ॥६॥ कुडमलीकृतपाण्यब्जाः श्रीवीरं द्रष्टुमुत्सुकाः । जयनन्दादिसद्ध्वानमुखराः शीघ्रगामिनः ॥६५॥ ददृशुर्दूरतो दीपं विभोरास्थानमण्डलम् । विश्वर्द्धिगणसंपूर्ण रत्नांशुव्याप्तदिग्मुखम् ॥६॥ धनदादिमहाशिल्पिनिर्मितस्य जगद्गुरोः । तस्य मुक्त्वा गणेन्द्रं को रचना गदितुं क्षमः ॥१७॥ तथापि भव्यसार्थानां धर्मप्रोत्यादिसिद्धये । करोमि वर्णनं किंचित्स्वशक्त्या समवसृतेः ॥६॥ एकयोजनविस्तीर्ण सुवृत्तं भ्राजते तराम् । सुरेन्द्रनीलरत्नौधैस्तस्याद्यं पीठमूर्जितम् ॥६९।। भो विंशतिसहस्राङ्कमणिसोपानराजितम् । मुक्त्वा सार्धद्विगम्यूतिं भूमेनभसि संस्थितम् ॥७॥ तस्य पर्यन्तभूमागमलंचक्रेऽतिदीप्तिमान् । धूलीशालपरिक्षेपो रत्नपांशुमयो महान् ॥७१॥ क्वचिद्-विद्रुमरम्यामः क्वचित्काञ्चनसंनिभः । क्वचिदञ्जनपुजामः क्वचिन्छुकच्छदच्छविः ॥७२॥ नानासुवर्णरत्नोत्थपांसुतेजश्चयैः क्वचित् । तन्वन्निवेन्द्रचापानि हसन् वा खे स राजते ॥७३॥ चतुर्दिश्वस्य दीप्याख्या हेमस्तम्भाग्रलम्बिताः । तोरणा मकरास्फोटमणिमाला विभान्यहो ॥७४॥ ततोऽन्तरान्तरं किंचिद्गत्वाम्बुपविव्रिताः । स्युश्चतस्रो जगत्यो हि वीथीनां मध्यभूमिषु ॥७५॥ चतुर्गोपुरसंयुक्तप्राकारत्रयवेष्टिताः । हेमषोडशसोपानयुता दीप्रा मनोहराः ॥७६॥ १५ काल और १६ महाकाल ये सोलह अद्भुतरूपधारी इन्द्र अपने सोलहों प्रतीन्द्रोंके साथ अपने-अपने वाहनोंपर आरूढ़ होकर अपनी-अपनी परम सामग्रीसे भूषित और अपने-अपने देव-देवी परिवारसे आवृत होकर भ्रूभागको भेदन करके ज्ञानकल्याणक करनेके लिए इस भूतलपर आये ॥५९-६३॥ ये चारों देवनिकायोंके स्वामी, अपनी इन्द्राणियों और देवोंसे भूषित, निमेष-रहित उत्तम नेत्रोंके धारक, परम आनन्दशाली, कर-कमलोंको जोड़े, जय, नन्द आदि मांगलिक शब्दोंको बोलते श्रीवीर प्रभुको देखनेके लिए उत्सुक अतएव शीघ्र गमन करते हुए यहाँपर आये ॥६४-६५।। और उन्होंने समस्त ऋद्धियोंसे परिपूर्ण, रत्न किरणोंसे दिङ्मुखको व्याप्त करनेवाले, देदीप्यमान ऐसे भगवान्के समवशरण मण्डलको दूरसे देखा ॥६६॥ कुबेर आदि महाशिल्पियोंके द्वारा निर्मित जगद्गुरुके उस समवशरणकी रचनाको कहने के लिए गणधरदेवको छोड़कर और कौन समर्थ हो सकता है ॥६७। तो भी भव्य जीवोंके धर्म-प्रेमकी सिद्धिके लिए अपनी शक्ति के अनुसार उस समवशरणका कुछ वर्णन करता हूँ ॥६८। वह समवशरण गोलाकार एक योजन विस्तारवाला था, उसका प्रथमपीठ उत्तम इन्द्रनीलमणियोंसे रचा गया था, अतः वह अत्यन्त शोभायमान हो रहा था ॥६९।। हे भव्यो, वह बीस हजार मणिमयी सोपानों ( सीढ़ियों) से विराजित था और भूतलसे अढ़ाई कोश ऊपर आकाशमें अवस्थित था ।।७०|| उसके किनारेके भूभागके सर्व ओर अतिदीप्तिमान , रत्नधूलिसे निर्मित विशाल धूलिशाल नामका पहला परकोटा था ॥७१।। वह कहींपर विद्रुम (मूंगा ) की सुन्दर कान्तिवाला था, कहीं सुवर्ण आभावाला था, कहीं अंजन पुंजके समान काली आभावाला था और कहींपर शुक ( तोता) के पंखोंके समान हरे रंगवाला था ॥७२॥ कहींपर नाना प्रकारके रत्न और सुवर्णोत्पन्न धूलिके तेज-पुंजसे आकाश में इन्द्रधनुषोंकी शोभाको विस्तारता अथवा हँसता हुआ शोभित हो रहा था ।।७३।। उसकी चारों दिशाओंमें दीप्ति-युक्त सुवर्णस्तम्भोंके अग्र भागपर मकराकृति मणिमालावाले , चार तोरणद्वार सुशोभित हो रहे थे ॥७४॥ उसके भीतर कुछ दूर चलकर वीथियोंकी मध्यभमिमें पजन-सामग्रीसे पवित्रित चार वेदियाँ थीं ॥७५॥ वे चार गोपुरद्वारोंसे संयक्त, तीन प्राकारों ( कोटों ) से वेष्टित, सुवर्णमयी सोलह सीढ़ियोंसे भूषित, देदीप्यमान और मनको For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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