SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ श्री-वीरवर्धमानचरिते [१३.५७मातः प्रवचनस्यैष श्रयेदष्टौ मुदान्वहम् । समित्याद्या हि गुप्त्यन्ताः कर्मपांशुविनाशिनीः ॥५७॥ विश्वोत्तरगुणैः साधं सर्वान्मूलगुणान् सुधीः । अतन्द्रितो नयेन्नैव स्वप्नेऽपि मलसंनिधिम् ॥५४॥ इत्यादिपरमाचारालंकृतो विहरन्महीम् । उज्जयिन्याः श्मशानं देवोऽतिमुक्तकाख्यमागमत् ॥५९॥ तत्र रौद्रे श्मशानेऽसौ त्यक्त्वा कायं शिवाप्तये । प्रतिमायोगमाधाय वीरोऽस्थादचलोपमः ॥१०॥ परात्मध्यानसंलीनं मेरुशृङ्गनिभं जिनम् । स्थाणुनामान्तिमो रुद्रोऽधोगामी वीक्ष्य पापधीः ॥६॥ दौष्ट्यात्तद्धैर्यसामर्थ्य परीक्षितुमधान्मतिम् । उपसर्गे जिनेन्द्रस्य पापपाकेन तत्क्षणम् ॥६२॥ विकृत्य स्थूलवेतालरूपाण्येषोऽप्यनेकशः । स्वविद्यया जिनं ध्यानाच्चालयितुं समुद्ययौ ॥६३॥ तैर्भयानकरूपायेस्तर्जगद्भिदुरीक्षणैः । अट्टहासैः स्फुरद्ध्वानैर्नृत्यद्भिर्विविधैर्लयः ॥६४॥ व्यात्ताननैश्च तीक्ष्णास्वपलहस्तैर्गुरोर्निशि । ध्यानध्वंसकर चक्रे हयुपसर्ग सुदुःकरम् ॥६५॥ तस्मिन्नुपद्रवे वोरो मेरुङ्ग इवाभवत् । न मनाक् चलितो ध्यानात्तैरुपद्वकोटिभिः ।।६६॥ ततः पापी स विज्ञाय ह्यचलं श्रीजिनाधिपम् । परैः फणीन्द्रसिंहेभमरुद्वयादिकैः शमः ॥६७॥ स्वकृतैर्वर्धमानस्य व्यधारकातरभीतिदम् । उपसर्ग महाघोरमन्यैर्वाक्यैर्भयंकरैः ॥६॥ तदापि न मनागदेवः स्वस्वरूपाच्चचाल सः। तरां निजात्मनो ध्यानमालम्ब्यास्थान्महीन्द्रवत् ॥६९॥ ततस्तं धीरतापन्नं ज्ञात्वा दुष्टो महाधियम् । परीषहांश्चकारास्य पापार्जनकपण्डितः ॥७॥ किरातसैन्यरूपायैः शस्त्रहस्तैर्भयानकैः । दुःसहैर्विविधाकारैरन्यैः कातरभीतिदैः ॥७॥ वे कर्म-पाशकी विनाशक पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप आठों प्रवचन-माताओंका सदा ही हर्षसे आश्रय ले रहे थे ॥५७ । वे महाबुद्धिमान् वीर भगवान् समस्त उत्तर गुणोंके साथ सर्व मूलगुणोंको अप्रमादी होकर पालन करते थे और स्वप्नमें भी कभी मलों ( अतीचारों) को पास नहीं आने देते थे ।।५८॥ इत्यादि परम आचारसे अलंकृत वीर जिनेन्द्र पृथ्वीपर विहार करते हुए उज्जयिनीके अतिमुक्तक नामके श्मशानमें आये ॥५९।। उस रौद्र श्मशानमें वीर जिनेश शिव-प्राप्तिके लिए कायका त्याग कर और प्रतिमायोगको धारण कर पर्वतके समान अचल होकर ध्यानस्थ हो गये ॥६०।। परम आत्मध्यानमें संलीन, मेरु शिखरके समान स्थिर जिनराजको देखकर अधोगामी और पापबुद्धिवालों-स्थाणु नामक अन्तिम रुद्रने दुष्टताके कारण उनके धैर्य के सामर्थ्यकी परीक्षाके लिए पापके उदयसे उसी क्षण उनके ऊपर उपसर्ग करनेका विचार किया ॥६१-६२॥ तब वह अपनी विद्यासे अनेक प्रकारके विशाल वेताल रूपोंको बनाकर जिनदेवको ध्यानसे चलाने के लिए उद्यत हुआ ॥६३॥ उन भयानक रूपादिके द्वारा, तर्जना करनेसे, खोटी दृष्टि से देखनेसे, अट्टहासोंसे, घोर ध्वनि करनेसे, विविध प्रकार से लययुक्त नृत्योंसे, फाड़े हुए मुखोंसे, तीक्ष्ण शस्त्र और मांसको लिये हुए हाथोंसे उस रात्रिमें उसने जगद्-गुरुके ध्यानको नष्ट करनेवाला अति दुष्कर उपसर्ग किया ॥६४-६५॥ उस उपद्रबके समय वीर जिनेन्द्र मेरु शिखरके समान अचल रहे और उसके उन करोड़ों उपद्रवोंके द्वारा ध्यानसे रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए ।।६६।। तब उस पापी शठ रुद्रने श्री जिनराजको अविचल जानकर अपनी विक्रियासे बनाये हुए बड़े-बड़े फणावाले साँपोंसे, सिंहोंसे, हाथियोंसे, प्रचण्ड वायुसे और जलती हुई ज्वालाओंसे, इसी प्रकारके अन्य भयंकर रूपोंसे और दुष्ट वाक्योंसे कायरोंको भयभीत करनेवाला महाघोर उपसर्ग श्री वर्धमान जिनेन्द्र के ऊपर किया ॥६७-६८।। तो भी वीर जिनदेन अपने ध्यानावस्थित स्वरूपसे रंचमात्र भी चल-विचल नहीं हुए। किन्तु निज आत्माके ध्यानका आलम्बन करके सुमेरुके समान अचल बने रहे ॥६९॥ तब पाप-उपार्जन करनेमें अति पण्डित वह ढाष्ट रुद्र धीरता युक्त महावीरको जानकर अनेक प्रकारके परीषह और उपसर्गोंको करने लगा ॥७०।। उसने अपनी विक्रियासे भीलोंकी विकराल सेना बनायी, जिनके हाथों में भयानक शस्त्र थे, जो दुःसह और For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy