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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२.१२६ ] द्वादशोऽधिकारः १२१ आद्यन्तदुःखसन्मिनं चलं वैषयिकं सुखम् । त्यक्त्वेहतः स्वात्मजं सौख्यं परं ते क निरीहता ॥११३॥ पूतिगन्धे कुरामाङ्गे संगं मुक्त्वा प्रकुर्वतः । मुक्तिनार्यां महारागं कथं ते रागविच्युतिः ॥११॥ हेयादेयं स्फुटं ज्ञात्वा त्यक्त्वा हेयं निजात्मगम् । आदेयं भजतो नाथ कुतस्ते समभावना ॥११५॥ दृषदो रत्नसंज्ञान विहायानयमहामणीन् । दृष्ट्यादीन् दधतो देव लोममुक्तिः कथं तव ॥११६॥ क्षणध्वंस्यपदं राज्यं हत्वा नित्यं च्युतोपमम् । इच्छतस्त्रिजगदाज्यं काय॑ते निःस्पृहं मनः ।।११७॥ चलां लक्ष्मी परित्यज्य परां लोकाग्रजां श्रियम् । ईहतस्ते कुतो लोकेऽत्राशामुक्तिर्जगत्प्रभो ॥११८॥ विघातान्मदनाराते रतिप्रीत्योः प्रकुर्वतः । वैधव्यं ब्रह्मबाणैस्ते व देव हृदये कृपा ॥११९॥ कृत्स्नकर्मारिसंतानं घ्नतो ध्यानमहेषुभिः । मोहभूपतिना साध व ते नाथ दयां हृदि ॥१२०॥ त्यक्त्वा बन्धूनि जान् स्वल्पान् जगतां बन्धुतां पराम् । कुर्वतः स्वगुणैर्देव कथं ते बन्धुविच्युतिः ॥१२॥ भोगान् भुजङ्गभोगाभांस्त्यक्त्वा दक्ष प्रकुर्वतः । शुक्लध्यानसुधापानं कुतस्ते प्रोषधव्रतम् ॥१२२॥ विध्यापितजगत्तापा पुण्यधारेव पावनी । त्वदीयेयं महादीक्षा नः पुनातु बुधार्चिता ॥२३॥ प्रव्रज्यां जगतां शुद्धां पवित्रीकरणक्षमाम् । त्रिशुद्धया दधते तुभ्यं नमो मुक्तिस्पृहयालवे ॥१२४॥ निःस्पृहायाङ्गशर्मादौ सस्पृहाय शिवाध्वनि । तपःश्रीसंजुषे त्यक्तद्विधासङ्गाय ते नमः ॥१२५॥ सम्यग्दृ ज्ञान चारित्ररत्नत्रितयभूषणः । अनय॑र्भूषितायेश नमो निभूषणात्मने ॥१२६॥ राशि आज मेघ-रहित सूर्यको किरणोंके समान प्रकाशमान हो रही है ॥११२॥ हे भगवन , आदि और अन्त में दुःखोंसे मिश्रित, चंचल विषय-जनित सुखको छोड़कर स्वात्मज उत्कृष्ट सुखकी इच्छा करनेवाले आपके निःस्पृहपना कहाँ सम्भव है ॥११३॥ अत्यन्त दर्गन्धियुक्त स्त्रियोंके खोटे शरीरमें रागको छोड़कर मुक्तिरमणीमें महारागको करनेवाले आपके राग-रहित ( वीतराग ) कैसे माना जाये ॥११४॥ हेय और उपादेयको स्पष्ट जानकर हेयको छोड़कर उपादेय निज आनन्दको स्वीकार करनेवाले आपके हे नाथ, समभावना कहाँ है ॥११५|| रत्न नामधारी पत्थरोंको छोड़कर सम्यग्दर्शनादि अमूल्य महामणियोंको ग्रहण करने वाले आपके हे देव, लोभ-मुक्ति कैसे मानी जाये ॥११६॥ क्षण- भंगुर, और पाप-वर्धक इस लौकिक राज्यको छोड़कर नित्य और अनुपम तीन जगत्के साम्राज्य की इच्छा करनेवाले आपका मन निःस्पृह कैसे माना जा सकता है ॥११७॥ हे जगत्प्रभो, लौकिक चंचल लक्ष्मीको छोड़कर सर्वोत्कृष्ट लोकाग्रनिवासिनी मुक्ति लक्ष्मीको चाहनेवाले आपके संसारमें आशारहितपना कैसे सम्भव है ।।११८॥ कामदेवरूपी शत्रको ब्रह्मचर्यरूप बाणोंके द्वारा मार देनेसे रति और प्रीतिको विधवा बनानेवाले आपके हृदयमें हे देव, दया कहाँ है ॥११९।। ध्यानरूपी महावाणोंके द्वारा समस्त कर्मशत्रओंकी सन्तानका मोह-भूपतिके साथ विनाश करनेवाले आपके हृदयमें हे नाथ, करुणा कहाँ है ॥१२०|| अपने थोड़े-से बन्धुओंको छोड़कर अपने गणोंके द्वारा सारे जगत के जीवोंके साथ परम बन्धताको करनेवाले आपके हे देव. बन्धवियुक्तता कैसे सम्भव है ॥१२१॥ हे दक्ष, सर्पफणाके सदृश विषयुक्त भोगोंको छोड़ करके शुक्लध्यानरूपी अमृतपानको करते हुए आपके प्रोषधव्रत कैसे सम्भव है ।।१२२।। पुण्यधाराके समान जगतके सन्तापोंको शान्त करनेवाली, पवित्र और विद्वत्पूजित आपकी यह महादीक्षा हम सब लोगोंको पवित्र करे ।।१२३।। तीनों लोकोंको पवित्र करनेमें समर्थ ऐसी शुद्ध दीक्षाको मन-वचन-कायकी शुद्धिसे धारण करनेवाले और मुक्तिके इच्छुक आपके लिए नमस्कार है ॥१२४॥ शारीरिक सुखादिमें निःस्पृह और शिवमार्गमें सस्पृह, तपःश्रीसे संयुक्त और द्विविध परिग्रह के त्यागी हे भगवन् , आपको नमस्कार है ॥१२५॥ अनमोल सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रय आभूषणोंसे भूषित हे ईश, निभूषण आत्मस्वरूपवाले तुम्हारे लिए हमारा For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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