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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ श्री-वीरवर्धमानचरिते [१२.७१ हा पुत्र व गतोऽद्य त्वं त्यक्त्वा मां मुक्तिरञ्जितः । द्रक्ष्यामि नयनाभ्यां त्वां कदाहं मदुरप्रिय ।।७१॥ त्वद्वियोगं यतोऽत्राहं क्षणम नं क्षमा न हि । ततस्त्वामन्तरेणेश जीविष्यामि कथं चिरम् ॥७२॥ हातिकोमल गानस्त्वं कथं जेव्यसि दुर्जयान् । सर्वान् परीषहान् घोरानुपसर्गाननेकशः ॥७३॥ दुर्दमेन्द्रियमातङ्गांस्कैलोक्य जयिनं स्मरम् । कषायारीश्च धैर्येण केन पुत्र हनिष्यसि ॥७॥ हासि बालस्त्वमेकाकी कथं स्थास्यसि दुष्करे । भीमारण्ये गुहादौ च क्रूरैमासाशिमि ते ॥७५॥ विलापमिति कुर्वाणां व्रजन्तीं तां स्खलक्रमाम् । एत्य दिव्यगिरेत्यूचुनिरुध्य तन्महत्तराः ॥७६॥ देवि किं बेत्सि नास्येदं चरित्रं त्वं जगद्गुरोः । अयं त्रिजगतीमा सुतस्तेऽद्भुतविक्रमः ॥७७॥ भवाब्धौ पतनात्पूर्वमुद्धृत्यात्मानमात्मवित् । पश्चाद्भव्यान् बहुन्नूनमुद्धरिष्यति तीर्थराट् ॥७॥ पाशैर्बद्वो यथा सिंहस्तिप्ठेळातु न दुर्जयः । तथा देवि सुतस्ते च बद्धो मोहादिबन्धनैः ॥७९॥ अत्यासन्नमवप्रान्तो जगदुद्धरणक्षमः । त्वत्सुतो दीनवद् गेहेऽशुभे कुर्यात्कथं रतिम् ॥८॥ तथा त्रिज्ञाननेत्रोऽयं ज्ञातविश्वो विरक्तधीः । पतेन्मोहान्धकूपेऽस्मिन् मूढवत्केन हेतुना ॥८५।। विज्ञायेति महादक्षे जहि शोकमघाकरम् । कुरु धर्म गृहं गत्वा ज्ञात्वानित्यं जगत्त्रयम् ॥८॥ मूर्खा एव यतः शोक कुर्वन्तीष्टवियोगतः । दक्षा धर्म च संवेगात्सर्वानिष्टविघातकम् ॥८॥ इत्यादि तद्वचः श्रव्यं श्रुत्वा देवी प्रबुद्धधीः । विवेकांशुभिराहत्य स्वान्तःशोकतमो द्रुतम् ॥८४॥ विलाप करते हुए पुत्रके पीछे-पीछे घरसे निकले ॥६९-७०।। हाय पुत्र, आज तुम मुझे छोड़कर कहाँ जा रहे हो? हे मुक्ति में अनुरक्त, हे मेरे हृदयके प्यारे. अब मैं तुम्हें अपने नेत्रोंसे कब देखूगी ।७१।। जब मैं तेरे वियोगको क्षणमात्र भी सहन करनेको समर्थ नहीं हूँ, तब तेरे बिना मैं चिरकाल तक कैसे जीवित रह सकूँगी ।।७२।। हे पुत्र, तुम अति कोमल शरीरवाले हो, फिर इन दुर्जय परीपद और अनेक प्रकारके घोर उपसर्गोंको कैसे जीतोगे ? इन दुर्दमनीय इन्द्रियरूपी हाथियोंको, त्रैलोक्यविजयी इस कामदेवको, और इन कषायरूपी शत्रुओंको किस धैर्यसे घात करोगे ॥७३-७५॥ हाय पुत्र, तुम अभी बालक हो, फिर इस दुष्कर भयकारी वनमें और क्रूर मांस-भक्षी निहादिसे भरे हुए गुफा आदिमें कैसे रहोगे ।।७५।। इस प्रकारसे विलाप करती और भगवानके पीछे-पीछे गिरती-पड़ती जाती हुई उस त्रिशला माताको उसके महत्तर पुरुषोंने आकर और आगे जानेसे रोककर दिव्य वाणीसे इस प्रकार कहा-हे देवि, क्या तुम इस जगद्-गुरुके इस चरित्रको नहीं जानती हो ? तेरा यह पुत्र तीन लोकका स्वामी है और अद्भुत पराक्रमी है ॥७६-७७|| यह तीर्थंकर हैं, यह आत्मवेत्ता पहले संसारसागरमें पतनसे अपना उद्धार करके पीछे बहुत-से भव्य जीवोंका निश्चयसे उद्धार करंगे ॥७८॥ जैसे दुर्जय सिंह कभी भी पाशोंसे बँधा हुआ नहीं रह सकता है, उसी प्रकार हे देवि, तुम्हारा यह पुत्र भी मोह आदिके बन्धनोंसे बँधा हुआ घरमें कैसे रह सकता है अर्थात् नहीं रह सकता है ॥७२।। इनका संसार अति निकट आ गया है, यह जगत्के उद्धार करने में समर्थ तुम्हारा पुत्र दीन जनके समान इस अशुभ घरमें कैसे प्रीति कर सकता है ।।८०॥ यह तुम्हारा पुत्र तीन ज्ञानरूप नेत्रोंका धारक है, संसारका ज्ञाता है, संसारसे विरक्त चित्तवाला है। फिर यह किस कारणसे मूढजनके समान इस मोहरूप अन्धकूपमें गिरेगा ॥८१।। ऐसा जानकर हे महाचतुर माता, पापका आकर ( खानि ) इस शोकको छोड़ो और घर जाकर तथा इस तीन जगत्को अनित्य जानकर धर्मका आचरण करो ॥८२॥ क्योंकि इष्ट जनोंके वियोगसे मूर्ख लोग ही शोकको करते हैं। किन्तु जो चतुर पुरुष होते हैं, वे संवेगसे सर्व अनिष्ठोंके विघातक धर्मका पालन करते हैं ।।८३।। इत्यादि प्रकारके उद्बोधक और श्रवणीय महत्तरोंके वचनोंको सुनकर प्रबुद्ध बुद्धि वह देवी विवेकरूपी किरणोंसे अपने मनके शोकरूपी अन्ध For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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