SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ श्री-वीरवर्धमानचरिते [११.७६सामायिकादिचारित्रं पञ्चधा शशिनिर्मलम् । धर्मशुक्लशुभध्यानज्ञानाभ्यासादयो वराः ॥७६॥ एते मुनीश्वरैः सेव्याः कर्मास्त्रवनिरोधिनः । हेतवः संवरस्योच्चैर्जगत्साराः प्रयत्नतः ॥७॥ कर्मणां संवरो येषां योगिनां प्रत्यहं परः । निर्जरा सुतपो मोक्षास्तेषां स्युः सद्गुणाः स्वयम् ॥७८॥ सहन्तश्च तपाक्लेशं कतु दुष्कर्म संवरम् । अशक्ता ये व्रतास्तेषां मुक्तिर्वा निर्मला गुणाः ॥७९॥ संवरस्य गुणानित्थं ज्ञात्वा मोक्षोत्सुकाः सदा । दृञ्चिद्वृत्तादि-सद्योगैः कुर्वीध्वं सर्वथान तम् ॥४०॥ (संवरानुप्रेक्षा ८) प्रागर्जितविधीनां यः क्रियते तपसा क्षयः । निर्जरानाविपाका सा यतीनां शिवकारिणी ॥१॥ जायते कर्मपाकेन निर्जरा याखिलात्मनाम् । स्वभावेनान सा हेया सविपाकान्यकर्मदा ॥८२॥ विधीयते तपोयोगैर्यथा यथा स्वकर्मणाम् । निर्जरा याति मुक्तिश्रीमुनेः पाश्चं तथा तथा ॥८३॥ जायते निर्जरा पूर्णा यदैव कृत्स्नकर्मणाम् । तपसात्र तदैव स्याद्योगिनां मुक्तिसङ्गमः ॥८४॥ विश्वशर्मखनी सारा मुक्तिरामाम्बिका परा । अनन्तगुणदा सेच्या तीर्थनाथैर्गणाधिपः ॥८५।। सर्वाशर्मातिगा पुंसां मातेव हितकारिणी । निर्जरा त्रिजगत्पूज्या विज्ञेया भवनाशिनी ॥८६॥ इत्येतस्या गुणान् ज्ञात्वा तपो धोरपरीषहैः । सर्वयलेन कार्या सा मवभीतैः शिवाप्तये ॥४॥ (निर्जरानुप्रेक्षा ९) anana महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकारका चारित्र, उत्तम क्षमादिरूप दश प्रकारका धर्म, अनित्यादि बारह अनुप्रेक्षा, क्षुधादि-बाईस महापरीषहोंका जीतना, सामायिक आदि पाँच प्रकारका चन्द्रतुल्य निर्मल चारित्र-परिपालन, धर्मशुक्लरूप शुभध्यान और उत्तम ज्ञानाभ्यास आदि । कर्मास्रवके रोकनेवाले और जगत्में सार ये सभी संवरके उत्कृष्ट कारण मुनीश्वरोको प्रयत्न पूर्वक सेवन करना चाहिए।७५-७७|| जिन योगियाँके आनेवाले काँका प्रतिदिन परम संवर है और तपसे संचित कर्मोंकी निर्जरा हो रही है. उनको मोक्ष और सद्-गुण स्वयं प्राप्त होते हैं ॥७८|| जो लोग तपके क्लेशको सहन करते हुए भी दुष्कर्मोका संवर करनेके लिए असमर्थ हैं, उनकी मुक्ति कहाँ सम्भव है और निर्मल सद्-गुण पाना भी कहाँसे सम्भव है ॥७९।। इस प्रकार संवरके गुणोंको जानकर मोक्षके लिए उत्सुक पुरुष सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि सद्योगों द्वारा सदा सर्व प्रकारसे कर्मोंका संवर कर ॥८॥ ( संवरानुप्रेक्षा ८) पूर्वकालमें उपाजित कर्मोका तपके द्वारा जो क्षय किया जाता है, वह शिव पद प्राप्त करनेवाली अविपाक निर्जरा योगियोंके होती है ॥८१।। कर्मकी विपाककालके द्वारा सभी संसारी प्रणियोंके जो स्वभावतः कर्म-निर्जरा होती है, वह सविपाक निर्जरा है। यह नवीन कर्मबन्ध कराती है, अतः त्यागनेके योग्य है ॥८२॥ तपोयोगोंके द्वारा जैसे-जैसे अपने कर्मोंकी निर्जरा की जाती है, वैसे-वैसे ही मुक्तिलक्ष्मी तपस्वी मुनिके पास आती जाती है ॥८३॥ तपसे जब ही सर्व कर्मों की पूर्ण निर्जरा है, तब ही योगिजनोंको मुक्तिका संगम हो जाता है ।।८४॥ यह निर्जरा सर्व सुखोंकी खानि है, मुक्तिरामाकी माता है, परम सारभूत है, अनन्त गुणोंको देनेवाली है, तीर्थनाथों और गणनाथोंके द्वारा सेवन की जाती है, सर्व दुःखोंका नाश करती है, माताके समान मनुष्योंकी हितकारिणी त्रिजगत्पूज्य है और संसारको नाश करनेवाली है, ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार इस निर्जराके गुणोंको जानकर भवभय-भीत ज्ञानीजनोंको मोक्षप्राप्तिके लिए घोर तपश्चरण और परीषह-सहनके द्वारा सर्व प्रयत्नसे इस कर्म-निर्जराको करना चाहिए ।।८५-८७।। (निर्जरानुप्रेक्षा ९) For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy