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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ श्री-वीरवर्धमानचरिते [११.५१इत्याद्यन्यतरं वस्तु यत्किंचित्कर्मजं मुवि । तत्सर्व तत्त्वतो ज्ञेयं पृथग्भूतं निजात्मनः ॥५१॥ बहूक्तेनात्र किं साध्यं दृग्ज्ञानादिगुणान् परान् । तत्तन्मयान् विहायान्यत्स्वकीयं जातु नो भवेत् ॥५२॥ वपुरादेविदित्वेत्यन्यत्वं स्वस्य चिदात्मनः । ध्यानं कुर्वन्ति योगीन्द्रा यत्नात्कायादिहानये ॥५३॥ (अन्यत्वानुप्रेक्षा ५) शुक्रशोणितमतं यत्पूरितं सप्तधातुभिः । विष्टायशुचिवस्त्वोधस्तदङ्ग को मजेत्सुधीः ॥५॥ क्षुत्पिपासाजरारोगानयो यत्र ज्वलन्त्यहो। तत्र कायकुटीरे किं निवासः शस्यते सताम् ॥५५॥ वसन्ति यत्र रागद्वेषकषायस्मरोरगाः । तत्र गात्रविले नित्यं ज्ञानी कः स्थातुमिच्छति ॥५६॥ कायोऽयं केवलं पापी स्वेन नाशुचितन्मयः । किन्तु सुगन्धिवस्त्वादीन् स्वाश्रितानपि दूषयेत् ॥५७॥ मातङ्गपाटके यद्वदम्यं किंचिन्न दृश्यते । चर्मास्थ्यादीन् विना तद्वत्सर्वाङ्गे मण्डितेऽपि च ॥५॥ पोषितं शोषितं चैतदस्मराशिभविष्यति । यद्यवश्यं वपुस्तहि तपसे शोषितं वरम् ॥ ५९॥ यतोऽयं पोषितः कायो दत्ते रोगाद्यदुर्गतीः । शोषितस्तपसामुत्र दाता स्वमुक्तिसत्सुखान् ॥१०॥ यद्यनेनापवित्रेण पवित्रा गुणराशयः । कैवल्याचाः प्रसिद्धयन्ति तत्कार्य का विचारणा ॥६॥ विदित्वेति शरीरेणानित्येन विमलात्मभिः । साध्यो मोक्षो द्रुतं नित्यस्त्यक्त्वा तत्संभवं सुखम् ॥१२॥ जिनमें यह जीव तन्मय हो रहा है, वे भी कर्म-जनित और नवीन कर्मबन्ध-कारक विभाव हैं, अतः पर हैं। वे जीवमय नहीं हैं ॥५०॥ इत्यादि रूपसे कर्म-जनित जो कुछ भी वस्तु संसारमें विद्यमान है, वह सब वास्तव में अपनी आत्मासे सर्वथा भिन्न जानना चाहिए ॥५१।। इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या साध्य है, सम्यग्दर्शन-ज्ञानादि आत्माके स्वाभाविक तन्मयी उत्तम गुणोंको छोड़ करके संसारमें कोई भी वस्तु अपनी नहीं है ॥५२॥ इसलिए योगीश्वर शरीरादिसे अपने चेतन आत्माको भिन्न जानकर काय आदिके विनाशके लिए शुद्ध चेतन आत्माका ध्यान करते हैं ॥५३॥ (अन्यत्वानुप्रेक्षा ५) जो शरीर माता-पिताके रज-वीर्यसे उत्पन्न हुआ है, सात धातुओंसे भरा हुआ है, विष्टा आदि अशुचि वस्तुओं के पुंजसे परिपूर्ण है, उस शरीरको कौन बुद्धिमान् पुरुष सेवन करेगा ।।५४|| अहो, जिस शरीरमें भूख-प्यास, जरा-रोग आदि अग्नियाँ सदा जलती रहती हैं, उस शरीररूप कुटीरमें सज्जनोंका निवास क्या प्रशंसनीय है ? कभी नहीं ॥५५।। जिस शरीररूपी बिलमें राग, द्वेष, कषाय और कामरूपी सर्प नित्य निवास करते हैं, वहाँ कौन ज्ञानी पुरुष रहनेकी इच्छा करेगा ? कोई भी नहीं ।।५६।। यह पापी शरीर केवल स्वयं ही अशुचि और अशुचिमय नहीं है, किन्तु अपने आश्रयमें आनेवाले सुगन्धी केशर, कर्पूर आदि द्रव्योंको भी दूषित कर देता है ।।५७।। जैसे भंगीके विष्टापात्रमें कुछ भी रमणीय वस्तु नहीं दिखाई देती है, उसी प्रकार चर्म-मण्डित इस सर्वांगमें भी हड्डी, मांस, रक्त आदिके सवाय कोई रम्य वस्तु नहीं दिखाई देती है ॥५८|| खान-पानादि पोषण किया गया और तपश्चरणादिसे शोषण किया गया यह शरीर अन्तमें अग्निसे जलकर अवश्य ही राखका ढेर हो जायेगा, यदि यह निश्चित है, तब तपके लिए सुखाया गया यह शरीर उत्तम है ।।५।। क्योंकि पोषण किया गया यह शरीर इस जन्म में रोगादिको और परभव में दुर्गतियोंको देता है। किन्तु तपके द्वारा सुखाया गया यह शरीर परभव में स्वर्ग और मुक्तिके उत्तम सुखोंको देता है ।।६०। यदि इस अपवित्र शरीरके द्वारा केवलज्ञानादि पवित्र गुणराशियाँ सिद्ध होती हैं, तब इस कार्यमें विचार करनेकी क्या बात है ॥६१।। ऐसा जानकर इस अनित्य शरीरसे निर्मल आत्माओंको नित्य मोक्ष शरीर-जनित सुख छोड़कर सिद्ध करना चाहिए ॥६२।। १. ब स्वेदुना। For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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