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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९.१४५] नवमोऽधिकारः धर्मो नाकिनरेन्द्रशर्मजनको धर्मो गुणानां निधि धर्मो विश्वहितंकरोऽशुभहरो धर्मः शिवश्रीकरः । धर्मो दुःखमवान्तकोऽसमपिता धर्मश्च माता सुहृन् नित्यं यः स विधीयतां बुधजना भोः किं ह्यसत्कल्पनैः ॥१४४॥ यो वन्द्योऽङ्गिपितामहोऽसुखहरश्चिद्धर्मतीर्थकरः ___ सर्वज्ञो गुणसागरोऽतिविमलो विश्वेकचूडामणिः । कल्याणादिसुखाकरो निरुपमः कर्मारिविध्वंसको वन्द्योऽर्योऽत्र मया जगत्त्रयबुधैमें सोऽस्तु तद्भतये ॥१४५॥ इति भट्टारकसकलकीतिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते भगवज्जन्मा भिषेकवर्णनो नाम नवमोऽधिकारः ॥२॥ धर्म इन्द्र और नरेन्द्रके सुखका जनक है, धर्म सर्व गुणोंका निधान है, धर्म विश्वभरके प्राणियोंका हितकारक है, अशुभका संहारक है और शिवलक्ष्मीका कर्ता है। धर्म संसारके दुःखोंका अन्त करनेवाला है, धर्म असामान्य पिता, माता और मित्र है। इसलिए हे ज्ञानी जनो, इस धर्मका ही सदा पालन करो। अन्य असत्कल्पनाओंसे क्या लाभ है ।।१४४॥ जो श्रीवीरप्रभु प्राणियोंके पितामह हैं, दुःखोंके हरण करनेवाले हैं, धर्मतीर्थके कर्ता हैं, सर्वज्ञ हैं, गुणोंके सागर हैं, अत्यन्त निर्मल हैं, विश्वके अद्वितीय चूड़ामणिरत्न हैं, कल्याण आदि सुखोंके भण्डार हैं, उपमा रहित हैं, कर्म-शत्रुओंके विध्वंसक हैं, और तीन लोकके ज्ञानी पुरुषोंके द्वारा एवं मेरे द्वारा वन्दनीय और पूज्य हैं, वे मेरे उक्त विभूतिके लिए सहायक होवें ॥१४५।। इस प्रकार भट्टारक सकलकीति-विरचित श्रीवीरवर्धमानचरितमें भगवान्के जन्माभिषेकका वर्णन करनेवाला नवम अधिकार समाप्त हुआ ।।९|| For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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