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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [९.४४ त्रिः परीत्य जिनाधीशं प्रणेमुः शिरसा समम् । शचीभिर्निर्ज रैश्चान्यैर्वासवः प्रमुदोद्धताः ॥४४॥ पपात कौसुमो वृष्टिस्तदा गन्धोदकैः समम् । दिवो ववौ मरुन्मन्दं सुगन्धिः शिशिरोऽमरैः ॥४५॥ यस्य जन्माभिषेकस्य स्नानपीठं सुराचलः । इन्द्रः स्नापयिता कुम्भाः क्षीरमेघायिताः पराः ॥४६॥ सर्वा देव्यश्च नतक्यः स्नानद्रोणी पयोऽर्णवः । किंकरा निर्जरा दक्षः कस्तं वर्णयितु क्षमः ॥४७॥ अथाभिषेकसंपूर्ण इन्द्राणी त्रिजगद्गुरोः। दिव्यं प्रसाधनं कर्तुं प्रारभे कौतुकान्विता ॥४८॥ तस्याभिषिक्त गात्रस्य शिरोनेत्रमुखादिषु । लग्नानम्भःकणान् देवी ममात्यमलांशुकैः ॥४९॥ निसर्गदिव्यगन्धानमीशितुर्व पुरूजितम् । अन्वलिप्यत भक्त्या सा द्रव्यः सान्द्रः सुगन्विभिः ॥५० त्रिजगत्तिलकीभूतस्यास्य भालेऽच्युतोपर्म । चकार तिलकं दीप्रभक्तिरागेण कंवलम् ॥५१॥ जगच्चूडामणेरस्य न्यधान्मन्दारमालया। उत्तंसेन समं मूनि दीप्तं चूडामणिं परम् ॥५२॥ विश्वनेत्रस्य देवस्य स्वभावासितचक्षुषोः । चक्रे साञ्जनसंस्कारं स्वाचार इति लभ्यते ॥५३।। अविद्धछिद्रयोश्चारुकर्णयोस्त्रिजगत्पतेः । कुण्डलाभ्यां स्फुरद्रत्नाभ्यां शोमां सा परां व्यधात् ॥५४॥ कण्ठं सा मणिहारेण बाहुयुग्मं महद्विभोः । मुद्रिकाभिरलंचक्रे केयूरकटकाङ्गदैः ।।५५।। कटीतटे बबन्धास्य किङ्किणी भविराजितम् । दीप्रं मणिमयं दाम तेजसा व्याप्तदिग्मुखम् ॥५६।। पादौ गोमुखनिर्भासमणिभिस्तस्य साकरोत् । वाचालितो सरस्वत्या सेव्यमानाविवादरात् ॥५७।। इत्यसाधारणैर्दिव्यैर्मगडनस्तस्कृतैः परेः । निसर्गकान्तितेजोभिलक्षणैः सहजैगुणैः ।।५।। षेकको सम्पन्न किया ॥४३|| पुनः अपनी-अपनी इन्द्राणियोंके साथ इन्द्रोंने, तथा अपनी देवियोंके साथ सब देवोंने अत्यन्त प्रमुदित होते हुए तीन प्रदक्षिणाएँ देकर जिनेन्द्रदेवको नमस्कार किया ॥४४।। उस समय देवोंने गन्धोदकके साथ पुष्पोंकी वर्षा की, और मन्द सुगनि शीतल पवन चलने लगा ॥४५॥ जिसके जन्माभिषेकका स्नानपीठ समेकपर्वत हो. इन्द्र अभिषेक करनेवालाहो. क्षीरसागरके जलसे भरे हए उत्तम कलश हों. सर्वदेवियाँ नृत्यकारिणी हों, क्षीरसागर द्रोणी ( जलपात्र ) हो और देव किंकर हों, उसका वर्णन करनेके लिए कौन दक्ष पुरुष समर्थ है ? कोई भी नहीं ॥४६-४७॥ अभिषेकका कार्य समाप्त होनेपर आश्चर्यको प्राप्त इन्द्राणीने त्रिजगद्-गुरुका शृङ्गार करना प्रारम्भ किया ॥४८॥ सर्वप्रथम उसने भगवान के जलाभिपिक्त शरीरके शिर, नेत्र और मुख आदि पर लगे हुए जलकणोंको निर्मल वस्त्रसे पोंछा ॥४९।। तत्पश्चात् स्वभावसे ही दिव्य सुगन्धसे युक्त भगवान के उत्तम शरीरपर भक्तिके द्वारा गीले सुगन्धित द्रव्योंका लेप किया ॥५०॥ पुनः तीन जगत्के तिलक स्वरूप प्रभुके अनुपम ललाटपर केवल भक्तिके रागसे प्रेरित होकर देदीप्यमान तिलक किया ।।५१।। पुनः जगतके चूड़ामणि प्रभुके मस्तकपर मन्दार पुष्पोंकी माला और मुचुटके साथ परम प्रदीप्त चूडामणि रत्न वाँधा ॥५२।। तत्पश्चात् विश्वके नेत्ररूप प्रभुके स्वभावसे ही अति कृष्ण नेत्रोंमें अञ्जन-संस्कार किया, यह उसने अपने आचार पालनके लिए किया ॥५३।। पुनः त्रिजगत्पतिके अबिद्ध छिद्र वाले दोनों कानोंमें प्रकाशमान रत्न जटित कुण्डलोंको पहिना कर परम शोभा की ।।५४|| तत्पश्चात् उस इन्द्राणीने प्रभुके कण्ठको मणिहारसे, बाहु-युगलको केयूर, कटक और अंगद आभूपोंसे तथा अंगुलियोंको मुद्रिकाओंसे शोभित किया।।५५।। तदनन्तर उसने प्रभुकी कमरमें छोटी-छोटी घण्टियोंसे विराजित अपने प्रकाशसे दिशाओंके मुखको व्याप्त करने के लिए देदीप्यमान मणिमयी कांचीदाम (करधनी ) पहनायी ॥५६।। पुनः प्रभुके दोनों चरणोंमें मणिमयी गोमुखवाले प्रकाशमान कड़े पहिनाये, जो कि ऐसे प्रतीत होते थे मानो सरस्वती देवी आदरसे उनके चरणोंकी सेवा ही कर रही हो ॥५०॥ इस प्रकार इन्द्राणीके द्वारा पहिनाये गये असाधारण दिव्य परम आभूषणोंसे तथा स्वभाव-जनित कान्ति, तेज, लक्षण और गुणोंसे युक्त वे भगवान् ऐसे शोभित For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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