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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८.६२] अष्टमोऽधिकारः के चौरा दुर्धराः पुंसां धर्मरत्नापहारिणः । पञ्चाक्षाः पापकर्तारः सर्वानर्थविधायिनः ॥४९॥ के शुरा ये जयन्त्यत्र परीषहमहाभटान् । धेर्यासिना कषायारीन् स्मरमोहादिशात्रवान् ॥१०॥ को देवोऽखिलवेत्ता यो दोषाष्टादशदूरगः । अनन्तगणवाराशिधर्मकर्ता परो न च ॥५१॥ को महान् गुरुरेवान यो द्विधा सङ्गवर्जितः । जगद्भव्यहितोद्युनो मुमुक्षु परः कचित् ॥५२॥ इति ताभिः प्रयुक्तानां प्रश्नानां शुभकारिणाम् । सर्वविद्गर्भमाहात्म्यादुत्तरं सा स्फुटं ददौ ॥५३॥ निसर्गेणामला बुद्धिर्विज्ञानेऽस्यास्तरामभूत् । त्रिज्ञानभास्वरं देवमुद्वहन्त्या निजोदरे ॥५४॥ सुतोऽस्या उदरस्थोऽपि नाजीजनन्मनाग व्यथाम् । शुक्तिस्थो जलबिन्दुः किं विक्रियां याति जातुचित्।।५५॥ त्रिबलीभङ्गरं देव्यास्तथैवास्थात्तनूदरम् । तथापि ववृधे गर्भस्तत्प्रमावो महात्मनः ॥५६॥ साभात्पुरुषरत्नेन तेन गर्भस्थितेन भोः । रत्नगर्भा धरेवान्या महती कान्तिसंश्रिता ॥५७॥ शक्रेण प्रहितेन्द्राणी ह्यप्सरोभिः समं मुदा । सिषेये यदि तां देवीं तस्याः का वर्णना परा ॥५८॥ इत्याद्यैः परमोत्साहमहोत्सत्रशतैः परैः । नवमे मासि संपूर्ण चैत्रे मालि शुभोदये ॥५९॥ त्रयोदशीदिने शुक्ले योगेऽयमणि नामनि । शुभे लग्नादिके देवी सुखेन सुपुवे सुतम् ॥६०॥ लसत्कान्तिहतध्वान्तं दिव्यदेहं जगद्धितम् । त्रिज्ञानभूषितं दीप्रं धर्मचित्तीर्थकारकम् ॥६१॥" तदास्य जन्ममाहात्म्यात्प्रापुर्निर्मलतां दिशः । नभसामाववो वायुः सुगन्धिः शिशिरः शनैः ॥३२॥ हितकारक ज्ञानको पा करके भी निष्पाप धर्म, क्रिया और आचारको नहीं करना ही मूर्खता है।॥४८॥ (प्रश्न-) दुर्धर चोर कौनसे हैं ? ( उत्तर-) जीवोंके धर्मरूप रत्नके चुरानेवाले, पाप-कारक, और सर्व अनर्थ विधायक इन्द्रिय-विषय ही दुर्धर चोर हैं ॥४९॥ ( प्रश्न- ) इस जगत्में शूर-वीर कौन हैं ? ( उत्तर- ) जो धैर्यरूपी तलवार के द्वारा परीषह रूपी महान् सुभटोंको, कपायरूप अरियोंको और काल-मोहादि शत्रुओंको जीतते हैं, वे ही पुरुष शूरवीर हैं ॥५०॥ (प्रश्न-) देव कौन है ? (उत्तर-) जो सर्व वस्तुओंका ज्ञाता है, अठारह दोषोंसे रहित है, अनन्त गुणोंका सागर है और धर्म तीर्थका कर्ता है, वहीं देव है। दूसरा नहीं ॥५१।। (प्रश्न-) महान् गुरु कौन है ? (उत्तर-) जो अन्तरंग-बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहसे रहित है, जगत् के भव्य जीवोंके हित करने में उद्यत है, और मोक्ष का इच्छुक है, वही सच्चा गुरू है और कोई नहीं ।।५२।। इस प्रकारसे उन देवियोंके द्वारा पूछे गये शुभ-कारक प्रश्नोंका उत्तम स्पष्ट उत्तर सर्ववेत्ता गर्भस्थ तीर्थंकरके माहात्म्यसे उस माताने दिया ।।५३।। यद्यपि माता प्रियकारिणी स्वभावसे ही निर्मल बुद्धिवाली थी, तो भी अपने उदरमें त्रिज्ञानी सूर्यरूप जिनदेवको धारण करनेसे विशिष्ट ज्ञानमें उसकी बुद्धि और भी अधिक निपुण हो गयी ॥५४।। गर्भस्थ पुत्रने अपनी माताको जरा-सी भी पीड़ा नहीं दी। शुक्तिके भीतर स्थित जलबिन्दु क्या कभी कुछ विकार करता है? नहीं करता ॥५५॥ माताका त्रिबलीसे सुन्दर कृश उदर ज्योंका त्यों रहा और गर्भ बढ़ता रहा । यह प्रभाव गर्भस्थ महान् आत्माका था ॥५६॥ गभमें स्थित उस पुरुषरत्नसे वह माता इस प्रकारसे शोभाको प्राप्त हुई, जैसे कि महाकान्तिसे युक्त दूसरी रत्नगर्भा पृथ्वी ही हो ॥५७।। यदि शकेन्द्र के द्वारा भेजी गयी इन्द्राणी अप्सराओंके साथ हर्षसे उस प्रियकारिणी देवीकी सेवा करती थी, तो उसकी महिमाका और अधिक क्या वर्णन किया जा सकता है ॥५८। इस प्रकारके परम उत्साह-पूर्ण सैकड़ों महोत्सवोंके साथ गर्भकालके नौ मास पूर्ण होनेपर चैत्र मासके शुभोदयवाले शुक्ल पक्ष में त्रयोदशीके दिन 'अर्यमा' नामक योगमें शुभ लग्नादिके समय सुखसे पुत्र को पैदा किया ॥५९-६०।। वह पुत्र प्रकाशमान शरीरकी कान्तिसे अन्धकारको नाश करनेवाला, दिव्य देहका धारक, जगत्-हितैपी, तीन ज्ञानसे भूषित देदीप्यमान और धर्मतीर्थका कर्ता था ॥६१॥ उस समय इस पुत्रके जन्म होनेके माहात्म्यसे सर्व For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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