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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [७.८८श्रेयोनिबन्धिनी सारां विश्वमानल्यकारिणीम् । एकाग्रचेतसा मुक्त्यै स्तवसामायिकादिभिः ॥१८॥ ततो मज्जननेपथ्यमण्डनानि विधाय सा । परीता स्वजनैः कैश्चिजगाम भूपतेः सभाम् ॥४९॥ आगच्छन्ती नृपो वीक्ष्य प्रियां संमाध्य स्नेहतः । मधुरैर्वचनैस्तस्यै ददौ स्वार्धासनं मुदा ।।९।। सुखासीना ततोऽप्येषा विधाय स्वमुखे मुदम् । मनोहरगिरा होत्थं स्वमर्तारं व्यजिज्ञपत् ॥११॥ देवाद्य पश्चिमे भागे यामिन्याः सुखनिद्रिा । भद्राक्षं षोडशस्वमानहमद्भुतकारणान् ॥१२॥ इमान् गजादिवह्वयन्तान् महाश्चर्यकरान् परान् । पृथक पृथक त्वमेतेषां फलं नाथ ममादिश ॥१३॥ तदाकार्येति सोऽवादीत् त्रिज्ञानी शृणु सुन्दरि । एकाग्रचेतसामीषां दिशामि फल मूर्जितम् ।।९।। प्रशस्ते भविता कान्ते तीर्थनाथो गजेक्षणात् । जगज्ज्येष्ठो महाधर्मरथप्रवर्तको वृषात् ॥१५॥ सिंहेनानन्तवीर्योऽसौ कौभयूथघातकः । लक्ष्म्यामिषेकमाप्तष मेरो मूर्ध्नि सुरेश्वरैः ।।९६॥ दाम्ना सुगन्धि देहश्च सद्धर्मज्ञानतीर्थकृत् । पूर्णेन्दुना बुधालादी सद्धर्मामृतवर्षणः ॥१७॥ भास्वताज्ञानकुध्वान्तहन्ता सभास्वरद्युतिः । कुम्माभ्यां निधिमागी सज्ञानध्यानसुधाघटः ॥९८॥ मत्स्ययुग्मेक्षणाद् विश्वशर्मकर्ता महासुखी। सरसा लक्षणैर्दिव्यैरुदासी व्यञ्जनैश्च सः ॥१९॥ अब्धिना केवलज्ञानी नवकेवलिलब्धिवान् । सिंहासनेन साम्राज्यपदयोग्यो जगद्गुरुः ॥१०॥ स्वर्विमानावलोकेन दिवः सोऽवतरिष्यति । नागेन्द्रभवनालोकात् सोऽवधिज्ञाननेत्रवान् ॥१०॥ देखनेसे उत्पन्न हुए आनन्दसे जिसका हृदय परिपूर्ण है, ऐसी उस देवीने शय्यासे उठकर पुण्यवर्धिनी और सर्वमंगलकारिणी नित्य क्रियाओंको एकाग्रचित्तसे मुक्तिके लिए सामायिक, जिनस्तुति आदिके साथ किया ।।८७-८८॥ तत्पश्चात् स्नान करके और वस्त्राभूषण धारण करके वह कितने ही स्वजनोंके साथ राजाकी सभामें गयी ॥८९।। राजाने अपनी प्रियाको आती हुई देखकर स्नेहके साथ मधुर वचन बोलकर हर्षसे उसे अपना आधा आसन दिया ॥१०॥ तब सिंहासनपर सुखसे बैठकर इस रानीने अपने मुखपर प्रमोद धारणकर मनोहर वाणी द्वारा अपने स्वामीसे इस प्रकार निवेदन किया ॥२१॥ हे देव, आज रात्रिके अन्तिम पहरमें सुखसे सोते हुए मैंने अद्भुत पुण्यके कारण ये सोलह स्वप्न देखे हैं ॥९२।। ऐसा कहकर उसने हाथीको आदि लेकर अग्नि पर्यन्त महा आश्चर्य करनेवाले उन उत्तम स्वप्नोंको निवेदन किया और बोली-हे नाथ, इन स्वप्नों का भिन्न-भिन्न फल मुझे बताइए ॥९३॥ रानीका यह कथन सुनकर तीन ज्ञानके धारक सिद्धार्थने कहा-हे सुन्दरि, तुम एकाग्रचित्तसे सुनो, मैं इनका उत्तम फल कहता हूँ ॥२४॥ हे उत्तम प्रिये, हाथीके देखनेसे तेरे तीर्थनाथ पुत्र होगा। बैलके देखनेसे वह जगत्में श्रेष्ठ और महान् धर्मरूप रथका प्रवर्तक होगा ॥१५॥ सिंहके देखनेसे वह कर्मरूपी गज-समुदायका घातक अनन्त वीर्यशाली होगा। लक्ष्मीके देखनेसे वह सुमेरुकी शिखरपर देवेन्द्रों द्वारा जन्माभिषेकको प्राप्त होगा ॥१६॥ मालाओंके देखनेसे वह सुगन्धित देहवाला और सद्धर्मज्ञानरूप तीर्थका प्रवर्तक होगा। पूर्णचन्द्रके देखनेसे वह श्रेष्ठ धर्मरूप अमृतका बरसानेवाला और ज्ञानियोंको आनन्द करनेवाला होगा ॥९७॥ सूर्यके देखनेसे अज्ञानरूपी अन्धकारका नाशक भास्वर कान्तिका धारक होगा। कलश-युगलके देखनेसे वह अनेक निधियोंका स्वामी और ज्ञान-ध्यानरूपी अमृतसे परिपूर्ण घटवाला होगा ॥९८|| मत्स्य-युगलके देखनेसे वह सर्व सुखोंका करनेवाला, महासुखी होगा। सरोवरके देखनेसे वह दिव्य लक्षणों और व्यंजनोंसे शोभित शरीरवाला होगा ।।२९॥ समुद्र के देखनेसे वह केवलज्ञानी और नवकेवललब्धियोंवाला होगा। सिंहासनके देखनेसे वह साम्राज्य पदके योग्य जगद्-गुरु होगा ॥१००।। स्वर्गविमानके देखनेसे वह स्वर्गसे अवतरित होगा। नागेन्द्र-भवनके देखनेसे वह १. अ परिवारजनैः । For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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