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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [७.५९अथैकदा महादेवी सौधान्तम॒दुःतल्पके । सुप्तातिशर्मणा स्वस्था पश्चिमे प्रहरे शुभे ॥५९॥ निशायाः पुण्यपाकेनापश्यत्स्वप्नान् जगद्धितान् । इमान् षोडश तीर्थेशविश्वाभ्युदयसूचकान् ॥६०॥ ददर्शादौ गजेन्द्रं सा त्रिमदं श्वेतमूर्जितम् । ततो दीप्रं गवेन्द्रं च चन्द्रामं मन्द्रनिःस्वनम् ॥६१॥ लसत्कान्ति महाकायं मृगेन्द्रं रक्तकन्धरम् । पद्मा स्नाप्यां हरिण कुम्भविष्टरे देवदन्तिभिः ॥६२॥ सादाक्षीदामनी दिव्यामोदाकृष्टमदालिनी । हतध्वान्तं च संपूर्ण ताराधीशं सतारकम् ॥६३॥ निर्धततमसोद्योतं भास्कर सोदयाचलात् । कुम्मी हेममयौ पद्मपिहितावास्यावलोकयत् ॥६॥ मत्स्यौ सरसि संफुल्ल कुमुदाम्भोजसंचये । तरत्सरोजकिञ्जल्कं पूर्ण दिव्यं सरोवरम् ॥६५॥ उदवेलं च महाध्वानमब्धिमेषा व्यलोकयत् । स्फुरन्मणिमयं तुझं दिव्यं सिंहासनं परम् ॥६६॥ स्वर्विमानं मुदापश्यत्परार्ध्यरत्नभास्वरम् । फणीन्द्रभवनं पृथ्वीमुद्भिद्योद्गतमूर्जितम् ॥६७॥ अद्राक्षीद् रत्नराशिं च तदंशूद्योतिताम्बरम् । निर्धूमवपुषं दीप्तं पावकं सा जिनाम्बिका ॥ ६८॥ तेषामन्ते मुदाद्राक्षीत्तुङ्गकायं गजोत्तमम् । प्रविशन्तं स्ववक्त्राब्जे सुतागमनसूचकम् ॥६९॥ ततो जज़म्भिरे प्रातस्तूर्याणामद्भुताः स्वराः । तस्याः प्रबोधमाधातुमिति पेठुः सुपाठकाः ॥७॥ कलकण्ठाः सुमाङ्गल्यगीतादीन्यस्खलगिरः । प्रबोधसमयो देवि तेऽयं सम्मुखमागतः ॥७१॥ मुञ्च तल्पं यथायोग्यं कुरु कृत्यं शुभावहम् । येनामोषि जगत्सारं विश्वकल्याणसंचयम् ॥७२॥ इसके पश्चात् किसी दिन वह स्वस्थ महादेवी प्रियकारिणी राजमन्दिरके भीतर कोमल शय्यापर रात्रिके अन्तिम शुभ प्रहरमें अति सुखसे सो रही थी, तब उसने पुण्य-परिपाकसे जगत्के हित करनेवाले, और तीर्थंकरके सर्व अभ्युदयके सूचक ये वक्ष्यमाण सोलह स्वप्न देखे ॥५९-६०।। उसने आदि में तीन स्थानोंसे मद झरते हुए श्वेत मदोन्मत्त गजेन्द्रको देखा। तत्पश्चात् गम्भीरध्वनि करनेवाले दीप्तियुक्त चन्द्र समान उज्ज्वल वृषभराजको देखा ॥६१।। तदनन्तर कान्तियुक्त, लाल कन्धेवाला विशाल देहका धारक मृगराजको देखा । पुनः कमलासनपर बैठी हुई लक्ष्मीको देव हस्तियोंके द्वारा सुवर्णकलशोंसे स्नान कराते हुए देखा ॥६२॥ पुनः उसने दिव्य सुगन्धिसे उन्मत्त भौंरोंको आकृष्ट करनेवाली दो मालाएँ देखीं। पुनः अन्धकारको नाश करनेवाला, ताराओंके साथ सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त चन्द्रमा देखा ॥६३।। पुनः अन्धकारको सर्वथा नाश करनेवाला ऐसा उदयाचलसे उदित होता हुआ सूर्य देखा । इसके पश्चात् कमलोंसे ढके हुए मुखवाले दो सुवर्णमयी कलश देखे ॥६४। तदनन्तर कुमुदों और कमलोंके संचयवाले सरोवरमें क्रीड़ा करती दो मछलियाँ देखीं। पुनः जिसमें कमल-पराग तैर रहा है ऐसा जल-पूर्ण दिव्य सरोवर देखा ॥६५|| पुनः उसने गन्भीर ध्वनि करता हुआ उमड़ता समुद्र देखा। पुनः स्फुरायमान मणिमय उत्तुंग दिव्य सिंहासन देखा ॥६६॥ पुनः हर्षित होती हुई रानीने बहुमूल्य रत्नोंसे प्रकाशमान देवविमान देखा। पुनः भूमिको भेदकर निकलता हुआ देदीप्यमान धरणेन्द्रका विमान देखा ॥६७|| अपनी किरणोंसे आकाशको प्रकाशित करनेवाली रत्नराशि देखी। सबसे अन्तमें उस जिनमाताने प्रदीप्त निर्धम अग्नि देखी । ॥६८॥ इन स्वप्नोंके अन्तमें प्रमोद संयुक्त माताने पुत्रके आगमनका सूचक, उन्नत गजराजको अपने मुखमें प्रवेश करते हुए देखा ॥६९॥ - तत्पश्चात् प्रातःकालीन बाजोंकी अद्भुत ध्वनि चारों ओर फैल गयी और उस माताको जगाने के लिए सुन्दर कण्ठवाले तथा अस्खलित वाणीवाले वन्दीजन उत्तम मंगल गीत आदिको गाते हुए इस प्रकार स्तुति करने लगे-हे देवि, जगनेका समय तेरे सम्मुख आकर उपस्थित हुआ है, अतः शय्याको छोड़ो और अपने योग्य शुभ कार्योंको करो जिससे १. ब त्रिमदश्रुति- । २. ब हिरण्य । For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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