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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ___ श्री विपाकसूत्रीय द्वतीय श्रुतस्कन्ध [उपसंहार समझा जाये ? इस सम्बन्ध में प्राचार्य अमयदेवसरि भी मौन है। तथाति विद्वानों के साथ विचार करने से हमें जो गात हो सका है वह पाठकों की सेवा में अर्पित किये देते हैं । इस में कहां तक औचित्य है, यह पाठक स्वयं ही विचार करें। नन्दीसूत्र आदि सूत्रों में वर्णित श्री. उपासकदशाङ्ग आदि सत्रों के परिचय में श्रुतग्रहण के अनन्तर उपधान तप का वर्णन किया गया है। उपधान के अनेकों अर्थों में से "-उप समीपे धोयते क्रियते मूत्रादिकं येन तपसा तदुपधानम् । अथवा-अङ्गोपाङ्गानां सिद्धान्तानां पठनाराधनार्थमाचाम्लोपवासनिर्विकृत्यादिलक्षण: तपाविशेष उपधानम् । अर्थात् जिस तप के द्वारा सूत्र आदि की शीघ्र उपस्थिति हो वह तप उपधान तप कहलाता है । तात्पर्य यह है कि तप निर्जरा का सम्पादक होने से ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय तथा क्षयोपशम का कारण बनता है । जिस से सत्रादि की शीघ्र अवगति हो जाती है तथा साथ में सत्राध्ययन निर्विघ्नता से समाप्त हो जाता है । अथवा अङ्ग तथा उपाङ्ग सिद्धान्तों के पढ़ने और आराधन करने के लिये प्रायविल, उपवास और निर्विकृति आदि लक्षण वाला तपविशेष -" ये दो अर्थ उपलब्ध होते हैं, इन्हीं अर्थों की पोषक मान्यता आज भी प्रत्येक सत्राध्ययन के साथ २ या अन्त में की जाती श्रायविल तपस्या के प में पाई जाती है। यह ठीक है कि वर्तमान में उपलब्ध आगमों में किस सत्राध्ययन में कितना श्रायविल' शादि तप होना चाहिये। इस सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं मिलता। तथापि उन में उपधान तप के वर्णन से पोस्त मान्यता की प्रामाणिकता निर्विवाद सिद्ध हो जाती है । आगमों के अध्ययन के समय आयंविल ना की गपरम्परा के अनुसार जो मान्यता अाज उपलब्ध एक प्रचलित है. उस को तालिका पाठकों की जानकारी के लिये नीचे दो जाती है ११-अङ्गशास्त्र-१-श्राचाराङ्गसूत्र ४० प्रायविल । २-पूत्रकृताङ्गसूत्र ३० आय विल ।३ स्थानांगसत्र १८ श्रायविल । ४-समवायांगसूत्र ३ अाय विल । ५-भगवतीसूत्र १८६ आय विल । ६-ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र ३३ अायंविल । ७ . उपासकदशाङ्ग १४ श्राय विल । ८-अन्तकृदशाङ्ग १२ श्रायविल । ९अनुत्तरोपातिकदशा ७ आय विल । १०-प्रश्नव्याकरण ५ श्रायविल। ११-विपाक सूत्र २४ आय विल । . ... १२-उपाङ्गशास्त्र-१- औपपातिक ३ श्रायविल । २-राजप्रश्नीय ३ अायं विल । ३-जीवाभिगम ३ अायं विल । ४-प्रज्ञापमा ३ अायंविल । ५-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ३० आय विल । ६-निरयावलिका ७ । प्रायविल ७-कल्पावतंसिका ७ श्रायं विल । -पुष्पिका ७ अायं विल । -पुष्पचूला ७ आय विल । १०-वृष्णिदशा ७ अायं विल । ११-चन्द्रप्रज्ञप्ति ३ अायं विल । १२सूर्यप्रगति ३ आय विल ।। ४-मूलसूत्र १- दशवैकालिक १५ श्रायविल । २-नन्दी ३ अायं विल ३-उत्तराध्ययन २६ आयंविल । ४-अनुयोगद्वार २६ आय विल । (१) श्रायं विल शब्द के अनेकों संस्कृतरूपों में से प्राचाम्ल, यह भी एक रूप है । आचाम्ल में दिन में एक बार रूक्ष, नीरस एवं विकृतिरहित एक आहार ही ग्रहण किया जाता है। दूध, घी. दही, तेल, गुड़, शकर, मीठा और पक्वान्न आदि किसी भी प्रकार का स्वादु भोजन आचाम्लवत में ग्रहण नहीं किया जा सकता। इस में लवणरहित चावल, उड़द अथवा सत्त आदि में से किसी एक के द्वारा ही आचाम्ल किया जाता है। आजकल भूने हुए चने आदि एक नीरस अन्न को पानी में भिगो कर खाने का भी आचाम्ल प्रचलित है। इस तप में रसलोलुपता पर विजय प्राप्त करने का महान् आदर्श है । वास्तव में देखा जाए तो रस. नेन्द्रिय का संयम एक बहुत बड़ा संयम है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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