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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir उपसंहार सूत्रकार ने जैसे प्रत्येक अध्ययन की प्रस्तावना और उस का उपसंहार करते हुए उत्क्षेप और निक्षेप इन दो पदों का उल्लेख करके प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ और समाप्ति का बोध कराया है, उसी क्रम के अनुसार श्री विपाकत का उपसंहार करते हुए सत्रकार मंगलपूर्वक समाप्तिसूचक पदों का उल्लेख करते हैं-- मूल-'नमो सुयदेवयाए। विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा-दुहविवागो य सुहविवागो य । तत्थ दुहविवागे दस अज्झयणा एक्कसरगा दससु चेव दिवसेसु उदिसिज्जन्ति । एवं सुहविवागे वि । सेसं जहा आयारस्स । ॥एक्कारसमं अंगं सम्मत्तं ।। .. पदार्थ नमो - नमस्कार हो। सुयदेवयाए -श्रुतदेवता को । विवागसुयस्स-विपाकश्रुत के । दो-दो । सुयखंधा-श्रुतस्कंध हैं, जैसेकि । दुहविवागो य-दुःखविपाक और । सुहविवागो य सुखविपाक । तत्थ-वहां । दुहविवागे-दु:खविपाक में । दस-दस । अज्झयणा-अध्ययन । एक्कसरगा-एक जैसे । दस तु चेव-दस ही । दिवसेतु-दिनों में । उद्दिसिज्जति - कहे जाते हैं । एवं-इसी प्रकार । सुहविवागे वि-सखविपाक में भी समझ लेना चाहिये । सेसं-शेष वर्णन । जहा - जैसे । आयारसम- आचारांग सूत्र का है, वैसे यहां पर भी समझ लेना चाहिये । एक्कारसम-एकादशवां । अंग-अंग । सम्मत्त - सम्पूर्ण हुआ। मूलार्थ-श्रुतदेवता को नमस्कार हो। विपाकश्रुत के दो श्रु तस्कंध हैं। जैसेकि - १ - दुःखविपाक और २-सुखविपाक । दुःखविपाक के एक जैसे दश अध्ययन हैं जो कि दस दिनों में प्रतिपादन किये जाते हैं । इसी तरह सुखविपाक के विषय में भी जानना चाहिए अर्थात. उस के भी दश अध्ययन एक जैसे हैं और दश ही दिनों में वर्णन किये जाते हैं। शेष वर्णन आचारांग सूत्र की भाँति समझ लेना चाहिये। . ॥ एकादशवां अंग समाप्त ।। टीका-मंगलाचरण की शिष्ट परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । ग्रन्थ के प्रारम्भ और समाप्ति के अवसर पर मंगलाचरण करना यह शिष्ट सम्मत आचार है । इसी शिष्ट प्रथा का अनुसरण करते हुए सत्रकार ने सूत्र की समाप्ति पर - नमो सयदेवयाए-नमः श्रुतदेवतायै-इन पदों द्वारा मंगलाचरण का निर्देश किया है। इन का अर्थ अग्रिम पंक्तियों में किया जा रहा है । किसी २ प्रति में यह पाट उपलब्ध नहीं भी होता। (१) छाया-नमः श्रुतदेवताय । विपाकश्रुतस्य द्वौ श्रुतस्कन्धौ-दुःखविपाकः सुखविपाकश्च । तत्र दुःखविपाके दश अध्ययनानि एकसदृशानि दरास्त्र दिवसेषु उद्दिश्यन्ते । एवं सुखविपाळेति । प्रोषं यथा आचारस्य । ॥ एकादशांगं समाप्तम् ॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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