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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६८९ यक्ष का यक्षायतन था। वहां के राजा का नाम वासवदत्त था । उस की कृष्णादेवी नाम की रानी थी और सुवासव नामक राजकुमार था। उस का भद्राप्रमुख ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ। तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी पधारे। तब सुवासव कुमार ने उन के पास श्रावकधर्म को स्वीकार किया। गौतम स्वामी ने उस के पूर्वभव का वृत्तान्त पूछा । प्रभु ने कहा गौतम ! कौशाम्बी नगरी थी, वहां धनपाल नाम का राजा था, उस ने वैश्रमणभद्र नामक अनगार को आहार दिया और मनुष्य आयु का बन्ध किया । तदनन्तर वह यहां पर सुवासवकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ यावत् मुनिवृत्ति को धारण कर के सिद्धगति को प्राप्त हुआ । निक्षेप की कल्पना पूर्व की भाँति कर लेनी चाहिए। ययन समाप्त ॥ टीका-जम्बू स्वामी की-भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ वर्णन किया है ? उसे भी सुनाने की कृपा करें, इस अभ्यर्थना के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी बोले-जम्बू ! विजयपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर था । उस के बाहिर ईशान कोण में नन्दनवन नाम का उद्यान था। उस में अशोक यक्ष का एक विशाले यक्षायतन था। वहां के नरेश का नाम वासवदत्त था। उस की कृष्णा देवी नाम की रानी थी। उन के राजकुमार का नाम सुवासव था । वह बड़ा ही सशील तथा सुन्दर था। एक वार विजयपुर के उक्त उद्यान में तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी पधारे । तब सवासव ने उन से गृहस्थधर्म के पञ्चाणुव्रतिक दीक्षा ग्रहण की । सुवासव के सद्गुणसम्पन्न मानवी वैभव को देख कर गणधर देव गौतम स्वामी ने भगवान् से उस के पूर्वभव को जानने की इच्छा प्रकट की। इस के उत्तर में भगवान् ने कहा-गौतम ! कौशाम्बी नाम की एक विशाल नगरी थी। वहां धनपाल नाम का एक धार्मिक राजा था। उस का संयमशील साधुजनों पर बड़ा अनुराग था एक दिन उस के यहां वैश्रमण नाम के एक तपस्वी मुनि भिक्षा के निमित्त पधारे । धनपाल नरेश ने उन को विधिपूर्वक वन्दन किया और अपने हाथ से नितान्त श्रद्धापूरिन हदय से निर्दोष प्रासुक आहार का दान दिया । उस के प्रभाव से उस ने मनुष्य आयु का बन्ध कर के उस भव की आयु को पूर्ण कर यहां आकर सुवासव के रूप में जन्म लिया । इस के आगे का प्रभु वीर द्वारा वर्णित उस का सारा जीवनवृत्तान्त अर्थात् जन्म से ले कर मोक्षपर्यन्त का स सुबाहुकुमार की भांति जान लेना चाहिए । इस में इतनी विशेषता है कि वह उसी जन्म में मोक्ष को प्राप्त हुआ, इत्यादि वर्णन करने के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत अध्ययन में चरित्रनायक के नाम, जन्मभूमि, उद्यान, माता पिता, परिणीत स्त्रिये तथा पूर्वभवसम्बन्धी नाम और जन्मभूमि तथा प्रतिलाभित मुनिराज आदि का विभिन्नतासूचक निर्देश कर दिया गया है और अवशिष्ट वृत्तान्त को प्रथम अध्ययन के समान समझ लेने की सूचना कर दी है। -नंदणं वणं-इस पाठ के स्थान में कहीं -मणोरमं-- ऐसा पाठ भी है। तथा- उत्तेप और निक्षेप शब्दों का अर्थसम्बन्धी उहापोह पीछे कर चुके हैं। प्रस्तुत में उत्तेप से-जइ जं भंते । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं सुहविवागाणं ततियस्स अज्झयणस्स अयम? पराणत चउत्यस्स णं भंते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तणं के अहे पराणते ?-अर्थात् यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यदि भदन्त ! सुखविपाक के तृतीय For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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