SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 775
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ तताय अध्याय दान पद का निर्माण दो व्यञ्जनों और दो स्वरों के समुदाय से हुआ है। यह छोटा सा पद बड़े विशद श्रो गम्भीर अथ से गर्भित एवं श्रोतप्रोत है । इस अर्थ को जीवन में लाने वाला व्यक्ति दानी कहलाता है । कोई २ व्यक्ति अपनी सेवा या प्रशंसा के उद्देश्य से भी दान देते है, परन्तु इस भावना से किया गया दान. दान के महत्त्व से शून्य होता है । वास्तविक दान में तो किसी भी ऐहिक स्वार्थ को स्थान नहीं होता । उस में तो नितान्त शुद्धि की आवश्यकता रहती है । दान देने वाला. दान लेने वाला और देय वस्तु, ये तीनों जहां शुद्ध हो, निर्दोष हों, किसी भी प्रकार के स्वार्थ से रहित हो, वहीं पर किया गया दान सफल निवडता है। प्रस्तुत तीसरे अध्ययन में भी ऐसी ही दानप्रणाली का वर्णन करने के लिए श्रद्धाशील दानी व्यक्ति श्री सुजातकुमार का जीवन संग्रहीत हुआ है । जिस का विवेचन निम्नोक्त है - मूल- तच्चस्स उक्वेवो । वीरपुर नगरं । मणोरमं उज्जाणं । वीरकण्ठमित्ते राया। सिरी देवी । सुजाए कुमारे । बलसिरीपामोक्खाणं पञ्चसयकन्नगाणं पाणिग्गहणं । सामी समोसरिते । पुव्यभवपुच्छा। उसुयारे णगरे । उसमदत्ते गाहावती । पुष्फदत्ते अणगारे पडिलाभिए । माणुस्साउए निवद्ध । इहं उप्पन्ने जाव महाविदेहे सिज्झिहिति ५ । निवखेयो। ॥ततियं अज्झयणं समत्तं ।। पदार्थ-तच्चस्स -तृतीय अध्ययन का । उक्खेवो-उत्क्षेप - प्रस्तावना पूर्व की भांति जान लेना चाहिये । वीरपुरं - वीर पुर । णगरं-नगर था मगोग्मं-मनोरम । उज्जाणं उद्यान था । वीरकण्ह मित्त - वीरकृष्णमित्र । राया- राजा था । सिरोदेवी- श्री देवी थी । सुजाए-सुजान । कुमारेकुमार था। बलसिरीपामोकवाणं-लश्रीप्रमुख । पंचसयकन्नगाणं -- पांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ । पाणिग्गहणं-- पाणिग्रहण-विवाह हुआ । सामी महावीर स्वामी । सासरिते- पधारे । पुष्वभवपुछा पूर्वभव की पृच्छा की गई । उसुयारे - इक्षुसार नामक । णगरे नगर था । उम्भदत्त ऋषभदत्त । गाहावती- गाथापति - गृहस्थ था। पुप्फदत्त - पुष्पदत्त । अणगारे - अनगार : पडिलाभिए- प्रतिलंभित किये । माणुस्साउप निवदू-मनुष्यायु का बन्ध किया । इह-यहां । उप्पन्नेउत्पन्न हुआ । जाव - यावत् । महाविदेहे - महाविदेह क्षेत्र में । सिझिहिति ५ - सिद्ध होगा, ५ । निक्खेवा - निक्षेप - उपसंहार की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिये । ततियं - तनीय ! अज्झयणं - अध्ययन । समत्त'- समाप्त हुआ। (१) छाया तृतीयस्योत्क्षेप: । वीरपुर नगरम् । मनोरममुद्यानम् । वीर कृष्ण मित्रो राजा : श्रीदेवी। सुजातः कुमार: । बलश्रीप्रमुखाणां पञ्चरातकन्यकानां पाणिग्रहणम् । स्वामी समवसृतः । पूर्वभवपृच्छा । इक्षुकार नगरम् । ऋषभदत्तो गाथापाति: । पुष्पदत्तोऽनगार: प्रतिलाभितः । मनुष्यायुर्निबद्धम् । हहोत्पन्नो यावत् महाविदेहे सेत्स्यति ५ । निक्षेपः । । तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy