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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। प्रतिबन्ध उपस्थित न किया जाय । इस विचार के अनन्तर मेघकुमार को संबोधित करते हुए वह बोली-अच्छा, बेटा ! यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो जाओ, वीरोचित धर्म का वीरवेष पहन कर उस की प्रतिष्ठा को अधिक से अधिक बढ़ाने का उद्योग करते हुए. इच्छित विजय प्राप्त करो, यही मेरा हार्दिक आशीर्वाद है। दीक्षा के लिये उद्यत हुए मेघकुमार को इस तरह से माता पिता का समझाना भी रहस्य से खाली नहीं है। उस में माता पिता के एक कर्तव्य की सूचना निहित है । इस के अतिरिक्त माता पिता इस बात की जांच करते हैं कि हमारा पुत्र किसी अमुक सांसारिक बात की कमी से तो साधु नहीं बन रहा ? इस के अतिरिक्त जांच करने से "-अमुक का पुत्र अमुक कमी से साधु बन गया" इस अपवाद से अपने आप को बचाया जा सकता है। इसी लिये माता ने अन्य बातों के कहने के साथ २ अन्त में यह भी कहा डाला कि बेटा ! कम से कम एक दिन की राज्यश्रो का उपभोग तो अवश्य करो-ऐसा कहने से वह "संयम को श्रेष्ठ समझता है या राज्य को?-" इस बात का भी भली भाँति निर्णय हो जायेगा । इस के अतिरिक्त राज्य को त्याग कर संयम लेने से संसार पर विशिष्ट प्रभाव पड़ेगा और संयम के महत्त्व का संसार को पता लगेगा। मेघकुमार भी माता के उक्त कथन (एक दिन की राज्यश्री का उपभोग अवश्य करो) का अभि. प्राय समझ गया और जैसे सोने की असली परीक्षा अग्नि में तपा कर ही होती है वैसे मुझे भी अपनी दृढ़ता की परीक्षा राज्य लेकर देनी होगी। यह सोच उस ने राज्य लेने की स्वीकृति दे दी और माता के अनुरोध को शिरोधार्य कर उस की लालसा को पूरा किया । दूसरे दिन मेघकुमार का बड़े समारोह के साथ राज्याभिषेक करके उसे राजा बना दिया गया । मेधकुमार राज्यसिंहासन पर बैठा और उसके ऊपर छत्र और दोनों तरफ़ चामर दुलाये जाने लगे । राज्यसत्ता मेघकमार को अर्पण कर दी गई। दूसरे शब्दों में उसे राज्यशासन का सारा भार सौंप दिया गया। महाराज श्रेणिक और महारानी धारिणी अपने पुत्र को राजगृहनरेश के रूप में देख कर अत्यन्तात्यन्त प्रसन्न हुए और सप्रेम कहने लगे कि पुत्र ! किसी कस्तु की इच्छा है ? तब मेघ नरेश ने उत्तर दिया-मुझे रजोहरण और पात्र चाहिये और शिरोमुंडन के लिए एक नाई चाहिए । महाराज श्रेणिक तथा माता धारिणी ने जब यह देखा कि मेधकुमार अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया है और अब उसे किसी ढंग से श्रापातरमणीय सांसारिक कामभोगों में फंसाया नहीं जा सकता । अब तो यह प्रभु वीर के चरणों में दीक्षित होकर अपना आत्मश्रेय साधने में अत्यधिक उत्सुक एवं उस के लिये सन्नद्ध हो रहा है तब उन्हों ने अपने कौटुम्विक पुरुषों को बुला कर कहा कि भद्र पुरुषो ! राज्य के कोष में से तीन लाख मोहरें निकाल लो। उन में से दो लाख मोहरों द्वारा रजोहरण ओर पात्र ले आओ, एक लाख मोहरे नापित -नाई का दे डालो, जो दीक्षित होने से पूर्व कुमार का शिरोमण्डन करेगा। , कौटुम्बिक पुरुषों ने महाराज को इच्छा के अनुपार वह सब कुछ कर दिया, तब दीक्षामहोत्सव की तैयारी होने लगी। सब से प्रथम मेघकुमार को एक पट्टासन पर बैठा कर सोने और चांदी के कलशों से स्नान कराया गया। शरीर को पोंछ कर सुन्दर से सुन्दर तथा बहुमूल्य वस्त्राभूषण पहनाये गये । सुगन्धित द्रव्यों का लेपन किया गया। तत्पश्चात् सेवकों को पालकी लाने की आज्ञा दी गई । अाज्ञा मिलते ही सेवकवृन्द एक सुन्दर सुसज्जित और एक हज़ार आदमियों के द्वारा उठाई जाने वाली पालकी ले आये । उस पालकी में पूर्व की ओर मुख कर के मेघकुमार बैठ गये। उन के पास ही महारानी धारिणी भी अच्छे २ वस्त्रालंकार पहन कर बैठ गई । मेधक मार के बाई ओर उन की धाय माता रजोहरण और पात्र ले कर बैठ गई । एक तरुण महिला छत्र लेकर उस के पीछे बैठ गई । दो युवतियें हाथों में चंवर लेकर वहां आई और मेघकमार को ढुलाने लगीं। एक और तरुण सुन्दरी पंखा लेकर पालकी में आई और वहां मेघकुमार के For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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