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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [६५७ कल्याण हो, उस काम के करने में क्लिम्ब नहीं करना चाहिये । परन्तु आप कह रहे हैं कि हमारे जीते जी दीक्षा न लो, यह क्यों ?, फिर क्या यह निश्चित हो चुका है कि हम में से पहले कोन मरेगा ? क्या माता पिता की उपस्थिति में पुत्र या पुत्री की मृत्यु नहीं हो सकती ? मेधकुमार के इस कथन का उत्तर माता पिता से कुछ न बन पड़ा । तब उन्हों ने उसे घर में रखने का एक और उपाय करने का उद्योग किया। महारानी धारिणी और महाराज श्रेणिक बोले बेटा! यदि तुम को हमारा ध्यान नहीं, तो अपनी नवपरिणीता वधुओं का तो ख्याल करो ? अभी तुम इन्हें व्याह कर लाये हो, इन बेचारियों ने तो अभी तक तुम्हारा कुछ भी सुख नहीं देखा । तुम यदि इन्हें इस अवस्था में छोड़ कर चले गये तो इन का क्या बनेगा ? इन को रक्षा करना तुम्हारा प्रधान कर्तव्य है । इन के विकसित हुए यौवन का विनाश कर दीक्षा के लिये उद्यत होना कोई बुद्धिमत्ता नहीं । यदि साधु ही बनना होगा तो अभी बहुत समय है, कुछ दिन घर में रह कर सांसारिक सुखों का भी उपभोग करो। वंशवृद्धि का सारा भार तुम पर है बेटा ! मेघकुमार बोला - यह कामभोग तो जीवन को पतित कर देने वाले हैं । स्वयं मलिन हैं और अपने उपासक को भी मलिन बना देते हैं : यह जो रूप लावण्य और शारीरिक सौंदर्य है, वह भी चिरस्थायी नहीं है, और यह शरीर जिसे सुन्दरता का निकेतन समझा जाता है, निरा मलमूत्र और अशुचि पदार्थों का घर है। ऐसे अपवित्र शरीर पर अासकि रखना निरी मूर्खता है । इस के अतिरिक्त ये शरीर, धन और कलत्रादि कोई भी इस जीव के साथ में जाने वाले नहीं हैं । समय आने पर ये सब साथ छोड़ कर अलग हो जाते हैं । फिर इन पर मोह करना या विश्वास रखना कैसे उचित हो सकता है ? पूज्य माता और पिता जो ! इस अस्थिर सांसारिक सम्बन्ध के व्यामोह में पड़ कर आप मुझे अपने कर्तव्य के पालन से च्युत करने का यत्न न करें। सच्चे माता पिता वे ही होते हैं, जो पुत्र के वास्तविक हित की ओर ध्यान देते हैं । मेरा हित इसी में है कि एक वीर क्षत्रिय के नाते कर्मरूप आत्मशत्रुओं को पराजित कर के आत्मस्वराज्य को प्राप्त करू। इस के लिये साधन है-संयम व्रत का सतत पालन । अत: यदि उस की आप मुझे आज्ञा दे दें, तो मैं आप का बहुत आभारी रहूंगा । आप यदि सांसारिक प्रलोभनों के बदले मुझे यह आशीर्वाद दें कि जा बेठा ! तू संयम व्रत को ग्रहण करके एक वीर क्षत्रिय की भाँति कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सफल हो, तो कैसा अच्छा हो । मां! मुझे शीघ्र प्राज्ञा दो कि मैं भगवान के पास दीक्षित हो जाऊ पिता जी ! कहो न, कि दीक्षा लेना चाहते हो तो भले ही ले लो, हमारी आज्ञा है। मेवकुमार के इस आग्रह भरे वचनसन्दर्भ को सुनने के बाद उस की माता ने संयमव्रत की कठिनाइयों का वर्णन करते हुए फिर कहा कि पुत्र ! संयमव्रत लेने की तेरे अन्दर जो लालसा है, वह तो प्रशंसनीय है, परन्तु जिस मार्ग का तू पथिक बनने की इच्छा कर रहा है, उस का सम्यकतया बोध भी प्राप्त कर लिया है । संयम कहने में तो तीन चार व्यञ्जनों का समुदाय है, पर इस के वाच्य को जीवनसात् करनाजीवन में उतारना, बहुत कठिन होता है । संयम लेने का अर्थ है-उस्तरे की धार। को चाटना और साथ में जिह्वा को कटने न देना, तथा नदी के प्रबल वेग के प्रतिकूल गमन करना, महान् समुद्र को भुजाओं से पार करना। भाँति संयम का अर्थ है-बड़े भारी पर्वत को सिर पर उठा कर चलना। इसलिये पत्र ! सब कुछ सोच समझ ले, फिर संयम ग्रहण की ओर बढ़ना ? कहीं ऐसा न हो कि इधर सांसारिक वैभव से भी हाथ धो बैठो और उधर संयम भी न पाल सको । माता धारिणी फिर बोली कि पुत्र ! संयमव्रत में सब से बड़ी कठिनाई यह है कि उस में भोजन की व्यवस्था बड़ी अटपटी है । कच्चा पानी इस में त्याज्य होता है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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