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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६५२] श्रोविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रृंतस्कन्ध [प्रथम अध्याय उत्तर-भगवान महावीर स्वामी के शिष्यों की कुल संख्या १४ हज़ार मानी जाती है और उन में गौतम: स्वामी; जैसे परमविनीत, परमतपस्वी और मेधावी अनगार मुख्य थे । सब के सब भगवान् के चरण- . कमलों के भ्रमर थे और भगवान के हित के लिये अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले थे। तात्पर्य यह है कि उनका. शिष्यपरिवार पर्याप्त था और वह भी परम विनीत । अत: उन की सेवा भी होती थी कि नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर अनायास ही समझा जा सकता है । अब रही शिष्यलालसा की बात, उस का उत्तर यह है कि भगवान् को शिष्य बनाने की न तो कोई लालसा थी और नाहि उन के अात्मसाधन में यह सहायक थी। केवल एक बात थी जिस. के लिये भगवान् ने वहां कष्ट उठा कर भी पधारने का यत्न किया। वह थी "-- जगतहित की भावना-"। सुबाहुकुमार मेरे वहां जाने से दीक्षा ग्रहण करेगा और दीक्षित हो कर जनता को सद्भावना का मार्गः प्रदर्शित करेगा तथा अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई जनता को. उज्ज्वल प्रकाश देगा एवं अपने आत्मा का कल्याण साधन करत हुश्रा:अन्य प्रात्माओं को भी शान्ति पहुंचावेगा और स्वात्मा के उत्थान से अनेक पतितः श्रात्माओं का उद्धार करने में समर्थ होगा......इत्यादि शुभचिारणा से प्रेरित होकर ही भगवान् ने विहार कर वहां पधारने का यत्न किया। भगवान् के हृदय में सुबाहुकमार से निष्पन्न होने वाले दूसरों के हित का ही ध्यान, थाः । तब इतने परम उपकारी वीरप्रभु के विषय में शिष्यलालसा, की कल्पना तो निरी अज्ञानमूलक है । इस. की तो वहां संभावना भी नहीं की जा सकती। इस के अतिरिक्तः यह भी विचारणीय है कि हर एक कार्य समय आने पर बनता है, समयः के आए बिना कोई काम नहीं बनता । यदि समय नहीं पाया तो लाख यत्न करने पर भी कार्य नहीं होता और समय आने पर अनायास ही हो जाता है। भगवान् तो घट घट के ज्ञाता हैं, अतीत और अनागत उन के लिये वर्तमान है। वे तो पहले ही कह चुके हैं कि सुबाहुकुमार उन के पास दीक्षित होगा, उन की वाणी तथ्य से कभी शून्य नहीं हो सकती थी. किन्तु उस की सत्यता या पूर्ति की प्रत्यक्षता के लिये कुछ समय अपेक्षित था। समय आने पर सुबाहुकमार को ना तो किसी ने प्रेरणा की और न किसी ने दीक्षित होने का उपदेश दिया किन्तु अन्तरात्मा से उसे प्रेरणा मिली और वह दीक्षा के लिये तैयार हो गया तथा भगवान् के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। . मनुष्य की शुभ भावना और दृढ निश्चय अवश्य फल लाता है। इस अनुभवसिद्ध उक्ति के अनुसार सुबाहुकुमार की.शुभभावना भी अपना फल लाई । जिस समय उस के किसी अनुचर ने पुष्पकरएडक उद्यान में प्रभु के. पधारने का समाचार दिया तो सुबाहुकमार को जो प्रसन्नता हुई उस का व्यक्त करना इस. तुद्र लेखनी की सामर्थ्य से बाहिर की वस्तु है । भगवान् का श्रागमन सुनते ही वह पहले की तरह-जिस तरह प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में वणन किया गया है, श्रमण, भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित हो जाता है और विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर भगवान् को पयुपासना में यथास्याम बैठ जाता है । सब के यथास्थान बैठ जाने पर उन की धर्मामृतपान करने को बढी हुई अभिलाषा को देख कर भगवान् बोले भव्यपुरुषो ! जिस प्रकार नगरप्राप्ति के लिये उस के मार्ग को जानने और उस पर चलने की आवश्यकता है। उसी प्रकार मोक्षमन्दिर तक पहुंचने की इच्छा रखने वाले साधकों को भी उस के मार्ग का बोध प्राप्त करके उस पर चलने की आवश्यकता होती है। किसी प्रकार की लालसा का न होना मोक्ष का मार्ग है । जब तक (१) भगवान् को “ तिराणाणं तारयाणं" इसीलिये कहा जाता है कि जहां भगवान् स्वयं संसार सागर से पार होते हैं, वहां वे संसारी प्राणियों को भी संसार सागर से पार करते. हैं.। "तारयाणं, यह. पद भगवान की महान् दयालुता, कृपालुता एवं विश्वमैत्रीभावना का एक ज्वलन्त प्रतीक हैं । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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