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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टोका सहित । [६४५ विराधना से बचा जा सकता है और तीसरी बात यह भी है कि यदि किसी समय अकस्मात् बाधा (मलमूत्र त्यागने की हाजित) उत्पन्न हो तो जाय उस से झटिति निवृत्ति की जा सकती है। यदि उक्त स्थान को पहले न देखा जाय तो काम कैसे चलेगा ? बाधा को रोकने से शरीर अस्वस्थ हो जाएगा, शरीर के अस्वस्थ होने पर धार्मिक अनुष्ठान में प्रतिबन्ध उपस्थित होगा...इत्यादि सभी बातों को ध्यान में रखते हुए सूत्रकार ने उच्चारप्रस्रवणभूमि के निरीक्षण का निर्देश किया है। इस से इस की धार्मिक पोषकता सुस्पष्ट है। __ -संथार- संस्तार, इस शब्द का प्रयोग आसन के लिये किया गया है । दर्भ कुशा का नाम है, कुशा का श्रासन दर्भसंस्तार कहलाता है । अष्टमभक्त यह जैनसंसार का पारिभाषिक शब्द है । जब इकट्ठ तीन उपवासों का प्रत्याख्यान किया जाये तो वहां अष्टमभक्त का प्रयोग किया जाता है । अथवा अष्टम शब्द अाठ का संसूचक है और भक्त भोजन को कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जिस तप में आठ भोजन छोड़े जाए उसे अष्टमभक्त कहा जाता है । एक दिन में भोजन दो बार किया जाता है । प्रथम दिन सायंकाल का एक भोजन छोड़ना अर्थात् एकाशन करना और तीन दिन लगातार छः भोजन छोड़ने, तत्पश्चात् पांचवें दिन प्रातः का भोजन छोड़ना, इस भाँति आठ भोजनों को छोड़ना अष्टमभक्त कहलाता है । ___ इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने सुबाहुकुमार के धार्मिक ज्ञान और धर्माचरण का वर्णन करते हुए उसे एक सुयोग्य धार्मिक राजकुमार के रूप में चित्रित किया है ? अब उस के अग्रिम जीवन का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं- .. मूल-तए णं तस्स सुवाहुस्स कुमारस्स पुन्चरत्तावरत्तकाले धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमे एयारूवे अज्झत्थिते ४ समुप्पज्जित्था-धन्ने णं ते गामागर० जाव सन्निवेसा, जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरति, धन्ना णं ते राईसर० जे समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए मुडा जाव पव्वयन्ति । धन्ना णं ते राईसर० जे णं समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वतियं जाव गिहिधम्म पडिवज्जन्ति । धन्ना णं ते राईसर० जेणं समणस्स भगवओ महावोरस्स अतिए धम्मं सुणेति । तं जइ णं समणे भगवं महावीरे पुवाणुपुब्धि (१) छाया-ततस्तस्य सुबाहोः कुमारस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले धर्मजागर्यया जाग्रतोऽयमेतद्प आध्यात्मिकः ४ समुत्पद्यत-धन्यास्ते' प्रामाकर० यावत् सन्निवेशा यत्र श्रमणो भगवान् महावीरो विहरति । धन्यास्ते राजेश्वर० ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्पान्तिके मुंडा यावत् प्रव्रजन्ति, धन्यास्ते राजेश्वर० ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके पञ्चाणुवतिकं यावद् गृहिधर्म प्रतिपद्यन्ते, धन्यास्ते राजेश्वर. ये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्म शृण्वन्ति, तद् यदि श्रमणो भगवान् महावीर: पूर्वानुपूर्व्या यावद् द्रवन् इहागछेत् यावद् विहरेत् , ततोऽहं श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके मुंडो भूत्वा यावत् प्रव्रजेयम् । (१) जहां महापुरुषों के चरणों का न्यास होता है वह भूमि भी पावन हो जाती है, यह बात बौद्धसाहित्य में भी मिलती है । देखिए गामे वा यदि वा रज्जे, निन्ने वा यदि वा थले । यत्यारहन्तो विहरन्ति, तं भूमि रामणेय्यक ॥९॥ (धम्मपद अर्हन्तवर्ग) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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