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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२० ] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय इस में कोई आशंका वाली बात नहीं है । अथवा पांच सौ मुनियों को साथ ले कर विचरने का यह भी तात्पर्य हो सकता है कि धर्मघोष आचार्य की निश्राय में, उन की आज्ञा में ५०० मुनि विचरते थे । दुसरे शब्दों में उन का शिष्य मुनिपरिवार ५०० था. जिस के साथ वे ग्रामानुग्राम विचरते और धर्मोपदेश से जनता को कृतार्थ करते थे । इस में कुछ मुनियों का साथ में आना, कुछ का पीछे रहना और कुछ का अन्य समीपवर्ती ग्रामों में विचरण करना आदि भी संभव हो सकता है। इस प्रकार भी ऊपर का प्रश्न समाहित किया जा साती है। साधुत्रों का जीवन बाह्य बन्धनों से विमुक होता है, उन पर - "आज इसी ग्राम में ठहरना है या इसे छोड़ ही देना है।" इस प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता, इसी बात को सूचित करने के लिये "पुवाणपवि" यह पद दिया है । अर्थात् धर्मघोष आचार्य मुनियों के साथ पूर्वानुपूर्वी-एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विवरते थे। उन्हें किसी ग्राम को छोड़ने की ज़रूरत नहीं होती थी। वे तो जहां जाते वहां धमधा की वर्षा करते, उन्हें किसी को वंचित रखना अभीष्ट नहीं था। वास्तव में संयमशील मुनिजनों के ग्रामानुग्राम विचरने से ही धर्म को विशेष प्रोत्साहन मिलता है। इसीलिये साधु को चातुर्मास के बिना एक स्थान पर स्थित न रह कर सर्वत्र विचरने का शास्त्रों में आदेश दिया गया है। धर्मघोष स्थविर के प्रधान शिष्य का नाम सदत्त था। सुदत्त अनगार जितेन्द्रिय और तपस्वी थे । तपोमय जीवन के बल से ही उन्हें तेजोलेश्या की उपलब्धि हो रही थी। उन की तपश्चर्या इतनी उग्र थी कि वे एक मास का अनशन करते और एक दिन आहार करते, अर्थात् महीने २ पारणा करना उन की बाह्य तपस्या का प्रधानरूप था और इसी चर्या में वे अपने साधुजीवन को बिता रहे थे। अन्तेवासी का सामान्य अर्थ समीप में रहने वाला होता है, पर समीप रहने का यह अर्थ नहीं कि हर समय गुरुजनों के पीछे २ फिरते रहना, किन्तु गुरुजनों के आदेश का सर्वथा पालन करना ही उनके समीप रहना है । गुरुजनों के आदेश को शिरोधार्य कर के उस का सम्यग अनुष्ठान करने वाला शिष्य ही वास्तव में अन्तेवासी (अन्ते समीपे वसति तच्छील:) होता है। जिस में बहुत से सद्गुण विद्यमान हों, और उन सब का समुचित रूप में वर्णन न किया जा सकता हो तो उन में से एक दो प्रधान गुणों का वर्णन कर देने से बाकी के समस्त गुणों का भी बिना वर्णन किये ही पता चल जाता है। जैसे राजा के मुकुट का वर्णन कर देने से बाकी के समस्त आभूषणों के सौन्दर्य की कल्पना अपने आप ही हो जाती है। इसी प्रकार सुदत्त मुनि के प्रधानगुण - तपस्या के वर्णन से ही उन में रहे हुए अन्य साधुजनोचित सद्गुणों का अस्तित्व प्रमाणित हो जाता है। प्रश्न-एक मास के अनशन के बाद केवल एक दिन भोजन करने वाले मुनि विहार कैसे कर सकते होंगे ? क्या उन के शरीर में शिथिलता न आ जाती होगी ? बिना अन्न के औदारिक शरीर का सशक्त रहना समझ में नहीं आता ? __ उत्तर-यह शंका बिल्कुल निस्सार है, और दुर्बल हृदय के मनुष्यों की अपनी निर्बल स्थिति के आधार पर की गई है, क्योंकि आज भी ऐसे कई एक मुनि देखने में आते हैं जो कि कई बार एक २ या दो २ मास का अनशन करते हैं और अपनी समूर्ण आवश्यक क्रियाएं स्वयं करते हैं । तपश्चर्या के लिए शारीरिक संहनन और मनोबल की आवश्यकता है । जिस समय की यह बात है उस समय तो मनुष्यों का संहनन अ मनोबल आज की अपेक्षा बहुत ही सुदृढ़ था । इसलिए श्री सुदत्त मुनि के मासक्षमण में किसी प्रकार की आशंका को अवकाश नहीं रहता । इस के अतिरिक्त आत्मतत्त्व के चिन्तक, तपश्चर्या की मूर्ति श्री सुदत्त मुनि For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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