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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६०८] श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम अध्याय होता है। सारांश यह है कि संसार में अनेक वस्तुएं हैं जो किसी के लिये मनोज्ञ और किसी के लिये अमनोज होती हैं। एक ही वस्तु मनोज्ञ होने पर भी सब के लिए मनोज नहीं होती, परन्तु सुाहुकुमार इस त्रुटि से रहित है । उस का रूप तथा स्वयं वह सब के लिये मनोज्ञ है। तदनन्तर गौतम स्वामी ने सुबाहुकुमार को मनोम और मनोमरूप कहा है, अर्थात् सबाहुकुमार लाभदायक और लाभदायक रूप वाला है। इस का तात्पय भी स्पष्ट है । कई वस्तु मनोज्ञ आर पथ्य होने पर भी शक्तिप्रद नहीं होती । जिस वस्तु के सेवन से शरीरगत अस्थियों - हड्डियों को शक्ति मिले, वे मोटी हों, खन और चर्बी में पतलापन आवे वे उत्तम होती है । इस के विपरीत जो वस्तु शरीरगत अस्थियों हड्डियों में पतलापन पैदा कर के, रुधिर आदि को गाढ़ा बनाती है वह अधम अर्थात् अनिष्टप्रद होती है । तात्पर्य यह है कि कोई वस्तु शरीर के किसी अंग को लाभ पहुंचाती है और किसी को हानि, परन्तु सबाह कमार सभी को लाभ पहुंचाने वाला है; उस के यहां से कोई भी निराश हो कर नहीं लौटता, इसीलिये वह मनोम और मनोमरूप कहलाया। शीतल -सौम्य प्रकृति वाले को सोम कहते हैं । सोम नाम चन्द्रमा का भी है। जिस प्रकार उस की किरणें सब को प्रकाश और शीतलता पहुंचाती हैं, उसी प्रकार सुबाहुकमार भी अपनी गुणसम्पदा से सब को सन्तापरहित करने में समर्थ है। सौभाग्ययुक्त सुभग कहलाता है । जिस का रूप - प्राकृति सौभाग्य प्राप्ति का हेतु हो वह सुभगरूप है। चन्द्रमा देखने में प्रिय होता है, सब में शीतलता का संचार करता है परन्तु उस में सौभाग्यवधकता नहीं है। वह भूख के कष्ट को नहीं मिटा सकता किन्तु सुबाहुकमार में यह त्रुटि भी नहीं थी। वह सब के दुःखों को दर करने में व्यस्त रहता है, इसलिये वह सुभगरूप है। उत्तमोत्तम स्वादिष्ट भोजन करना, बहुमूल्य वस्त्राभूषण पहनना और यथारुचि श्रामोदप्रमोद करना मात्र ही आकर्षक नहीं होता, उस के लिये तो प्रेम और अच्छे स्वभाव की भी आवश्यकता होती है । एतदर्थ ही सुबाहुकुमार के लिए प्रियदर्शन और सुरूप ये दो विशेषण दिये हैं । प्रेम का आदर्श उपस्थित करने वाली दिव्य मूर्ति का प्रियदर्शन के नाम से ग्रहण होता है और स्वभाव की सुन्दरता का सूचक सुरूप पद है। भगवान् गौतम के कथन से स्पष्ट है कि श्री सबाह कुमार में उपरिलिखित सभी विशेषतायें विद्यमान थीं, वे उसे समस्त जनता का प्यारा कहते हैं । इतना हा नहीं किन्तु साधुजनों को भी प्रिय लगने वाला सुबाहुकुमार को बतला रहे हैं। जनता तो कदाचित् भय और स्वार्थ से भी प्यार कर सकती है परन्तु साधु प्रों को किस से भय ? और किस से स्वार्थ ? उन्हें किसी की झूठी प्रशंसा से क्या प्रयोजन ? गौतम स्वामी कहते हैं कि सुबाहुकुमार साधुजनों को भी इष्ट कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, सौम्य और प्रियदर्शन है। इस से प्रतीत होता है कि वास्तव में ही वह ऐसा था । जो निस्पृह आत्मा प्रारम्भ से दूर हैं, जिन का मन तृण, मिट्टी मणि और कांचन के लिये समान भाव रखता है, जो कांचन, कामिनी के त्यागी हैं, जिन्हों ने संसार के समस्त प्रलोभनों पर लात मार रखी है, उन्हें भी सबाहुकुमार इष्ट, कान्त और मनोज्ञ प्रतीत होता है। इस से सुबाहुकुमार की विशिष्ट गण गरिमा के प्रमाणित होने में कोई भी सन्देह बाको नहीं रह जाता। "- इ8-" आदि पदों की व्याख्या श्री अभयदेवसूरि के शब्दों में निम्नोक्त है - इष्यते स्मेति इष्टः (जो चाहा जाये, वह इष्ट होता है. स च कृत विवक्षितकार्यापेक्षयापि स्यादित्याह For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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