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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५८७ पन्द्रहवें बोल में उन दालों की प्रधानता है जो अन्न से बनती हैं । शेष सूखे या हरे साग का ग्रहण शाक पद से होता है। १८-माधुरविधिप्रमाण ... अाम, जामुन, केला, अनार श्रादि हरे फल और दाख, बादाम, पिश्ता आदि सूखे फलों की मर्यादा करना । १९-जेमनविधिप्रमाण- जेमन शब्द उन पदार्थों का बोधक है जो भोजन के रूप में सुधा के निवारण के लिए खाए जाते हैं, जैसे -- रोटी, पूरी श्रादि । अथवा बड़ा, पकौड़ी आदि पदार्थ जेमन शब्द से संग्रहीत होते हैं, इन सब की मर्यादा करना। २०-पानीयविधिप्रमाण शीतोदक, उष्णोदक, गन्धोदक, अथवा खारा पानो, मीठा पानी आदि पानी के अनेकों भेद हैं, इन सब की मर्यादा करना। २१ मुखवासविधिप्रमाण-भोजनादि के पश्चात् स्वाद या मुख को साफ करने के लिये प्रयुक्त किए जाने वाले पान, सुपारी, इलायची, चूर्ण आदि पदार्थों की मर्यादा करना। २२ - वाहनविधिप्रमाण - वाहन अर्थात् -१-- चलने वाले-घोड़ा, ऊंट, हाथी आदि, तथा २-फिरने वाले गाड़ी, मोटर, ट्राम, साइकल आदि, इन सब वाहनों की मर्यादा करना । ___२३ -उपानविधिप्रमाण-पैरों की रक्षा के लिये पैरों में पहने जाने वाले जूता, खड़ाऊ आदि पदार्थों का परिमाण करना। २४-शयनविधिप्रमाण-शयन शब्द से उन वस्तुओं का ग्रहण होता है, जो सोने, बैठने के काम आती हैं, जैसे -पलंग, खार, पाट, आसन, बिछौना, मेज. कुर्सी आदि इन सब की मर्यादा करना। २५-सचित्तविधिप्रमाण -श्राम आदि सचित्त पदार्थों की मर्यादा करना । तात्पर्य यह है कि पदार्थ दो तरह के होते हैं । एक सचित्त - जीवसहित और दूसरे अचित्त-जीवरहित । सचित्त और अचित्त दोनों ही अनेकानेक पदार्थ हैं । श्रावक यदि सचित्त का त्याग नहीं कर सकता तो उस को सचित्त पदार्थों की मर्यादा अवश्य कर लेनी चाहिए। २६-द्रव्यविधिप्रमाण - खाने के काम में आने वाले सचित्त या अचिच द्रव्यों की मर्यादा करना। तात्पर्य यह है कि ऊपर के बोलों में जिन पदार्थों की मर्यादा की गई है, उन पदार्थों को द्रव्यरूप में संग्रह कर के उन की मर्यादा करना। जैसे -मैं एक समय में, एक दिन में या अायु भर में इतने द्रव्यों से अधिक का उपयोग नहीं करूंगा । जो वस्तु स्वाद की भिन्नता के लिये अलग मुह में डाली जाएगी, अथवा-एक ही वस्तु स्वाद की भिन्नता के लिये दूसरी वस्तु के संयोग के साथ मुंह में डाली जाएगी, उस में जितनी वस्तुए मिली हुई हैं, वे उतने द्रव्य कहे जाएंगे। उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की उपलब्धि के लिये धन की आवश्यकता होती है। धन के लिये गृहस्थ को कोई न कोई व्यवसाय चलाना ही होता है। अर्थात् कोई धन्धा -रोज़गार करना ही पडता है । बिना कोई धन्धा किए गृहस्थ जीवन की आवश्यकताएं पूर्ण नहीं हो सकतीं । अतः यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जीवन को चलाने के लिये गृहस्थ को कोई न कोई व्यापार करना ही होगा। व्यापार आर्य-प्रशस्त और अनार्य-अप्रशस्त इन विकल्पों से दो प्रकार का होता है। प्रशस्त का अभिप्राय हैजिस में पाप कर्म कम से कम लगे और अप्रशस्त का अर्थ है-जिस में पाप अधिकाधिक लगे । तात्पर्य यह है कि कुछ व्यापार अल्पपापसाध्य होते हैं जबकि कुछ अधिकपापसाध्य । श्रावक अधिकपापसाध्य व्यापार न करे, इस बात को ध्यान में रखते हुए सूत्रकार ने उपभोगपरिभोगपरिमाणवत के दो भेद कर दिये हैं। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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