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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६८] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध [प्रथम अध्याय -बावत्तरीकलापंडिए, 'नवंगसुसपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए गीयरईगन्धव्वनहकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमदी अलंभोगसमत्थे साहसिए वियालचारी जाते यावि होत्था, तते णं तस्स सुबाहुकुमारस्स अम्मापिअरो सुबाहुकुमारं बावत्तरिकलापण्डियं नवंगसुत्तपडिबोहियं अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारयं गीयरई गंधव्वनहकुसलं हयजोहिं गयजोहिं रहजोहिं बाहुजोहिं बाहुप्पमदि-इन पदों का तथा-अलंभोगसमर्थ० - यहां के बिन्दु से-साहसियं वियालचारिं जायं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है - सुबाहुकमार ७२ कलाओं में प्रवीण हो गया । यौवन ने उस के सोए हुए -दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक जिह्वा, एक त्वचा और एक मन -ये नव अंग जागृत कर दिये थे, अर्थात् बाल्यावस्था में ये नव अंग अव्यक्त चेतना -ज्ञान वाले होते हैं, जब कि यौवनकाल में यहो नव अंग व्यक्त चेतना वाले हो जाते हैं, तब सुबाहुकुमार के नव अंग प्रबोधित हो रहे थे । यह कहने का. अभिप्राय इतना ही है कि वह पूर्णरूपेण युवावस्था को प्राप्त कर चुका था। वह अठारह देशों की भाषाओं में प्रवोण हो गया था। उस को गीत. संगीत में प्रेम था, तथा गाने और नृत्य करने में भी वह कुशल -निपुण हो गया था। वह घोड़े, हाथी और रथ द्वारा युद्ध करने वाला हो गया था। वह बाहुयुद्ध तथा भुजात्रों को मदन करने वाला एवं भोगों के परिभोग में भी समर्थ हो गया था, वह साहसिक -साहस रखने वाला और अकाल अर्थात् आधी रात आदि समय में विचरण करने की शक्ति रखने में भी समर्थ हो चुका था। तदनन्तर सुबाहुक मार के माता पिता उस को ७२ कलाओं में प्रवीण आदि, (जाणे ति जाणित्ता -जानते हैं तथा जान कर - यह अर्थ निष्पन्न होता है। ___ -अब्भुग्गय०, तथा- भवणं० - इन सांकेतिक पदों से अभिमत पाठ की सूचना पीछे पृष्ठ ४७३ से ले कर ४७४ तक के पृष्ठों पर कर दी गई है । अन्तर मात्र इतना ही है कि वहां महाराज महासेन के पुत्र श्री सिंहसेन का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में महाराज अदीन रात्रु के सुपुत्र श्री सुबाहुकुमार का । शेष वर्णन समान ही है । तथा वहां मात्र-अभुग्गय०-इतना ही सांकेतिक पद दिया है जब कि प्रस्तुत में उसी के अन्तर्गत - भवणं०-इस पद का भी स्वतन्त्र ग्रहण किया गया है। ___"- एवं जहा महब्बलस्स रराणो -" इन पदों से सूत्रकार ने प्रासादादि के निर्माण में तथा विवाहादि के कार्यों में राजा महाबल की समानता सूचित की है, अर्थात् जिस तरह श्री महाबल के भवनों का निर्माण तथा विवाहादि कार्य सम्पन्न हुए थे, उसी प्रकार श्री सुबाहुकुमार के भी हुए । प्रस्तुत कथासन्दर्भ में श्री महाबल का नाम आने से उसके विषय में भी जिज्ञासा का उत्पन्न होना स्वाभाविक है । अतः प्रसंगवश उस के जीवनवृत्तान्त का भी संक्षिप्त वर्णन कर देना समुचित होगा। - हस्तिनापुर नगर के राजा बल की प्रभावती नाम की एक रानी थी। किसी समम उस ने रात्रि के समय अद्धजागृत अवस्था में अर्थात् स्वप्न में आकाश से उतर कर मुख में प्रवेश करते हुए एक सिंह को देखा । तदनन्तर वह जोंग उठी और उक्त स्वप्न का फल पूछने के लिए अपने शयनागार से उठ कर समीप के शयनागार में सोये हुए महाराज बल के पास आई ओर उन को जगा कर अपना स्वप्न कह सुनाया। स्वप्न को सुन कर नरेश बड़े प्रसन्न हुए तथा कहने लगे कि प्रिये ! इस स्वप्न के फलस्वरूप तुम्हारे गर्भ से एक बड़ा प्रभावशाली पुत्ररत्न उत्पन्न होगा। महारानी प्रभावती उक्त फल को सुन कर हर्षातिरेक से पतिदेव को प्रणाम (१) नवांगानि-श्रोत्रश्चनुरघ्राणरसनाश्त्व१मनोरलक्षणानि सुप्तानि सन्ति प्रबोधितानि यावनेन यस्य स तथा । ( वृत्तिकारः) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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