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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। [५४१ होगा ? ___ भगवान् – गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जाएगा और वहां उत्तम कुल में जन्म लेगा, जैसे कि प्रथम अध्ययन में वर्णन किया गया है, यावत सर्व दुःखों से रहित हो जाएगा। हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के दशवें अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। जम्ब-भगवन् ! आप को यह कथन सत्य है, परम सत्य है। ॥ दशम अध्ययन सम्पूर्ण ॥ ॥ दुःखविपाकीय प्रथम श्र तस्कन्ध समाप्त ॥ टीका-परमदुःस्विता अजूदेवी के भावी भवों की गौतम स्वामी द्वारा प्रस्तुत की गई जिज्ञासा की पूाते में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया है, उस का उल्लेख ऊपर मूलार्थ में किया जा चुका है, जो कि सुगम होने से अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता । ____ महापुरुषों की जिज्ञासा भी रहस्यपूर्ण होती है, उस में स्वलाभ की अपेक्षा परलाभ को बहुत अवकाश रहता है । जूदेवी के विषय में उस के अतीत, वर्तमान और भावी जीवन के विषय में जो कुछ पूछा है, तथा उस के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया है, उस का ध्यानपूर्वक अवलोकन और मनन करने से विवारशील व्यक्ति को मानव जीवन के उत्थान के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध होते हैं । इस के अतिरिक्त आत्मशुद्धि में प्रतिबन्धरूप से उपस्थित होने वाले काम, मोह आदि कारणों को दूर करने में साधक को जिस बल एवं साहस की श्रावश्यकता होती है, उस की काफी सामग्री इस में विद्यमान है। ____ मूलगत "एवं संसारो जहा पढमो, जहा णेयव्वं' - इस उल्लेख से सूत्रकार ने मृगापुत्र नामक प्रथम अध्ययन को सूचित किया है। अर्थात् जिस प्रकार विपाकसूत्रगत प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार अंजूश्री के जीव का भी समझ लेना चाहिए । अंजूश्री और मृगापुत्र के जीव का शेष संसारभ्रमण समान है, ऐसा बोधित करना सूत्रकार को इष्ट है, तथा मृगापुत्र का संसारभ्रमण पूर्व के प्रथम अध्ययन में वर्णित हो चुका है। प्रश्न-सूत्रकार ने प्रत्येक स्थान पर "संसारो जहा पढमो" - का उल्लेख कर के सब का संसारभ्रमण समान ही बतलाया है, तो क्या सब के कम एक समान थे?. क्या कर्मबन्ध के समय उन के अध्यवसाय में कोई विभिन्नता नहीं थी।। उत्तर - सामान्यरूप से तो यह सन्देह ठीक मालूम देता है, परन्तु यदि कुछ गम्भीरता से विचार किया जाये तो इस का समाहित होना कुछ कठिन नहीं है । 'आगमों में लिखा है कि संसार में अनन्त आत्माएं हैं । किसी का कर्ममल भिन्न तथा किसी का अभिन्न साधनों से संगृहीत होता है, इसी प्रकार कमफल भी भिन्न और अभिन्न दोनों रूप से मिलता है। मान लो-दो आदमियों ने ज़हर खाया तो उन को फल भी बराबर सा हो यह आवश्यक नहीं, क्योंकि विष किसी के प्राणों का नाशक होता है और किसी का घातक नहीं भी होता । सारांश यह है कि कर्मगत समानता होने पर भी फलजनक साधनों में भिन्नता हो सकती है ___ जैसा २ कम होगा, वैसा २ फल होगा। कई बार एक ही स्थान मिलने पर फल भिन्न २ होता है । जैसे-अनेकों अपराधी हैं किन्तु दण्ड विभिन्न होने पर भी स्थान एक होता है, जिसे कारागारजेल के नाम से पुकारा जाता है । इसी तरह जीवों का संसारभ्रमण एक सा होने पर भी फल भिन्न २ हो तो इस में कौनसी आपत्ति है ।, अथवा-जो बराबर के कर्म करने वाले हैं तो उन का संसारभ्रमण (१) देखो-श्री भगवतीसूत्र शतक २९, उद्देश० १ । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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