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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री विपाक सूत्र [दशम अध्याय ... एक दिन अंजूश्री अपनी सहेलियों और दासियों के साथ अपने उन्नत प्रासाद के झरोखे में कनक. कन्दुक अर्थात् सोने की गेंद से खेल रही थी । इतने में वर्धमानपुर के नरेश महाराज विजयमित्र अश्वक्रीड़ा के निमित्त भ्रमण करते हुए उधर से गुज़रे तो अचानक उन की दृष्टि अंजूश्री पर पड़ी। उस को देखते ही वे उस पर इतने मुग्ध हो गए कि उन को वहां से आगे बढ़ना कठिन हो गया। अजूश्री के सौन्दर्यपूर्ण शरीर में कन्दुकक्रीड़ा से उत्पन्न होने वाली विलक्षण चंचलता ने अश्वारूढ विजय नरेश के मन को इतना चंचल बना दिया कि उस के कारण वे अंजूश्री को प्राप्त करने के लिये एकदम अधीर हो उठे । मन पर से उन का अंकुश उठ गया और वह अंजुश्री की कन्दुकक्रीडाजनित शारीरिक च वलता के साथ ऐसा उलझा कि वापिस आने का नाम ही नहीं लेता। सारांश यह है कि अंजूश्री को देख कर महाराज विजयनरेश उस पर मोहित होगये और साथ में आने वाले अनुचरों से उस के नाम, ठाम आदि के विषय में पूछताछ कर येन केन उपायेन उसे प्राप्त करने की भावना के साथ वापिस लौटे अर्थात अागे जाने के विचार को स्थगित कर स्वस्थान को ही वापिस आ गये। इन के आगे का अर्थात् अंजूश्री को प्राप्त करने के उपाय से ले कर उस की प्राप्ति तक का सारा वृत्तान्त अक्षरश: वही है जो वैश्रमणदत के वणन में आ चुका है । केवल नामों में अन्तर है। वहां देवदत्ता यहां अंजूश्री. वहां दत्त यहां धनदेव एवं वहां वैश्रमण दत्त और यहां विजय नरेश है । इसके अतरिक्त वैश्रमणदत्त और विजय मित्र की याचना में कुछ अन्तर है। वैश्रमणदत्त ने तो देवदत्त। को पुत्रवधू के रूप में मांगा था जब कि विजयमित्र अंजू श्री की याचना महाराज कनकरय के प्रधानमन्त्री 'ततेलि कुमार की भान्ति भार्यारूप से अपने लिए कर रहे हैं । तदनन्तर अजूश्री के साथ विजय नरेश का पाणिग्रहण हो जाता है और दोनों मानवसम्बन्धी उदार विषयभोगों का उपभोग करते हुए सानन्द जीवन व्यतीत करने लगे। ___-गणिया वरणश्रो-यहां पठित-वर्णक पद का अर्थ है-वर्णनप्रकरण. अर्थात् गणिका - सम्बन्धी वर्णन पहले किया जा चुका है। इस बात को सूचित करने के लिये सूत्रकार ने -वएणो -इस पद का प्रयोग किया है। प्रस्तुत में इस पद से संसूचित - होत्था, अहीण. जाब सुरुवा वावत्तरीकलापंडियासे ले कर - श्रादेवच्चं जाव विहरति-यहां तक के पाठ का अर्थ पृष्ठ १०६ पर लिखा जा चुका है। राईसर० जाव प्पभियो तथा चुरणप्पओगेहि य जाव अभियोगत्ता-यहां पठित (१) तेतलिपुत्र या तेतलि कुमार का वृत्तान्त " ज्ञाताधमकथाङ्ग" नाम के छठे अंग के १४वें अध्ययन में वर्णित हुअा है । उस का प्रकृतोपयोगी सारांश इस प्रकार है - तेतलि कुमार तेतलिपुर नगर के अधिपति महाराज कनकरथ का प्रधान मंत्री था, जो कि राजकार्य के संचालन में निपुण और नीतिशास्त्र का परममर्मज्ञ था। उस के नीति कौशल्य ने ही उसे प्रधानमंत्री के सुयोग्य पद पर आरूढ होने का समय दिया था। उसी तेतलिपुर नगर में कलाद नाम का एक सुवर्णकार (सुनार) रहता था जो कि धनसम्पन्न और बुद्धिमान् था, परन्तु तेतलिपुर में उस की "मूषिकाकार दारक" के नाम से प्रसिद्धि थी। उस की स्त्री का नाम भद्रा था । भद्रा भी स्वभाव से सौम्य और पतिपरायणा थी। इन के पोहिला नाम की एक रूपवती कन्या थी। जन्म से लेकर युवावस्था पर्यन्त पोहिला का पालन पोषण और शिक्षा दीक्षा आदि का प्रबन्ध भी योग्य धायमाताओं द्वारा सम्पन्न हुआ था। वह भी रूपलावण्य और शारीरिक सौन्दर्य में अपूर्व थी। इस के आगे का अर्थात् उन्नत महल के झरोखे में दासियों के साथ कंदुकक्रीडा करना, और प्रधान मंत्री तेतलि कुमार का उसे देखना एवं निजार्थ याचना करना अर्थात् उसे अपने लिए मांगना अादि संपूर्ण वृत्तान्त पूर्व वर्णित वेश्रमणदत्त या विजयमित्र की तरह ही उल्लेख किया है। अधिक के जिज्ञासु झाताधर्मकथाङ्ग सूत्र में ही उक्त कथासंदर्भ का अवलोकन कर सकते हैं । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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