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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दशम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [५२९ .............................. पोरिसीए सज्झायं करेति, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाति-से ले कर - दिट्ठीर पुरओ रिय सोहे - माणे- यहां तक के पदों का, तथा जेणेव वद्धमाणपुरे णगरे तेणेव उवागच्छइ उबागच्छित्ता वद्धमायापुरे नगरे उच्चनीयमझिम कुलाइ- इन पदों का परिचायक है । अन्तेवासी इन्दभूतीइत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १० और ११ के टिप्पण में, तथा - घट्टकट्टेणं अणिक्खित्तणं-इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १२३ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां भगवान गौतम वीर प्रभु से पारणे के निमित्त वाणिजग्राम नगर में जाने की आज्ञा मांगते हैं, जब कि प्रस्तत में वर्धमानपुर नगर में जाने की । नगरगत भिन्नता के अतिरिक्त और कोई अन्तर नहीं है । तथा ---जेणेव वद्धमाणपुरे इत्यादि पदों का अर्थ है -जहां वर्धमानपुर नामक नगर था वहां पर चले जाते हैं और जा कर उच्च (धनी), नीच (निर्धन) तथा मध्यम सामान्य) कुलों में ....... -सुक्खं भुक्खं - इत्यादि पदों का अर्थ अष्टमाध्याय के पृष्ठ ४३१ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद एक पुरुष के विशेषण है, जब कि प्रस्तुत में एक नारी के। तथा-चिंता तहेव जाव एवं वयासो- यहां पठित चिन्ता शब्द से विवक्षित पाठ की सूचना पृष्ठ २८७ पर दी जा चुकी है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां एक पुरुष के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है. जब कि प्रस्तुत में एक नारी के सम्बन्ध में । तथा तहेव-तथैव पद का अर्थ है-वैसे ही, अर्थात् गौतम स्वामी उस स्त्री के सम्बन्ध में उक्त विचार करते हुए वर्द्धमानपुर नगर में उच्च (धनी), नीच (निर्धन) और मध्यम (सामान्य) कुलों में भ्रमण करते हुए यथेष्ट सामुदानिक -गृहसमुदाय से प्राप्त भिक्षा को लेकर वर्धमानपुर नामक नगर के मध्य में होते हुए जहां भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पाते हैं, अाकर भगवान् के निकट गमनागमनसम्बन्धी प्रतिक्रमण (कृत पाप का पश्चात्ताप) कर तथा आहारसम्बन्धी आलोचना (विचारणा या प्रायश्चित्त के लिए अपने दोषों को गुरु के सन्मुख रखना) की, आहार, पानो दिखलाया, तदनन्तर प्रभु को वन्दना नमस्कार किया और निवेदन किया-प्रभो! आप से प्राज्ञा प्राप्त कर के मैं वर्धमानपुर नगर में गया वहां उच्च प्रादि कुलों में भ्रमण करते हुए मैंने विजयमित्र नरेश की अशोकवाटिका के निकट बड़ी दयनीय अवस्था को प्राप्त एक स्त्री को देखा, उसे देख कर मेरे मन में"-अहह! यह स्त्री पूर्वकृत पुरातनादि कर्मों का फल पा रही है। यह ठीक है कि मैंने नरक नहीं देखे किन्तु यह स्त्री तो प्रत्यक्ष नरकतुल्य वेदना को भोग रही है-" ऐसे विचार उत्पन्न हुए, इन भावों का बोधक तहेव-- तथैव पद है, और इन्हीं भावों के संसूचक पाठ को जाव-यावत् पद से अभिव्यक्त किया गया है, तथा जाव-यावत् पद से अभिमत पद निम्नोक्त पाठ का परिचायक है - -त्ति कटु वद्धमाणपुरे णगरे उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापज्जत्त समुयाणं गेएहति २ सा घद्धमाणपुरं णगरं मझमज्झणं निग्गच्छइ २ त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता समणस्स भगवो महावीरस्त अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमइ २ त्ता एसणमणेसणे आलोएइ २ ता भत्तपाणं पडिदंसति । समणं भगवं महावोरं वंदति नमंसति २ त्ता एवं वयासीएवं खलु अहं भंते ! तुम्भेहिं अब्भणुराणाते समाणे वदमाणपुरे णगरे उच्चनीयमज्झिमकुले धरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे पासामि एग इथियं सुकवं...वी सराई कूवमाणिं पासित्ता इमे अज्झित्थिते ५ समुप्पज्जित्था-अहो णं एसा इत्थी पुरा पुराणाणां दुच्चिराणाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं पावा कडागां कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे विहरति । न मे दिट्ठा नरगा वा नेरइया वा पच्चक्खं खलु एसा इत्थी निरयपडिरूवियं वेयणं वेयइ । इन पदों का अर्थ स्पष्ट ही है। तथा वागरण-का अर्थ है-गौतम स्वामी के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का प्रतिपादन । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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