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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नकम अध्याय हिन्दी भाषा टोका सहित । कुछ शुल्क देना अनुचित नहीं समझा जाता था । वर्तमान युग में इस शुल्क? ---उपहार लेने की प्रथा को इस लिए निन्द्य समझा जाता है कि इससे अनेक प्रकार के अनर्थी को जन्म मिला है। वृदविवाह जैसी दुष्ट प्रया को प्रगति मिलने का यही एक मात्र कारण है तथा अयोग्य वरों के साथ योग्य लड़कियों का सम्बन्ध भी इसी को आभारी है। इन्हीं कुपरिणामों के कारण यह प्रथा निन्द्य हो गई और इस लिये आज एक निर्धन कुलीन व्यक्ति अपनी लड़की के बदले लेना तो अलग रहा प्रत्युत लड़की के घर का । जहां लड़की व्याही गई हो) जल भी पोने को तैयार नहीं होता । -जइ वि सा सयरजसक्का - इन पदों का अर्थ वृत्तिकार – यद्यपि सा स्वकोयराज्यशुल्का (स्वकीयं आत्मीयं राज्यमेव शुल्कं यस्याः सा ) स्वकीयराज्यलभ्या इत्यर्थः-इस प्रकार करते हैं अर्थात् अपना समस्त राज्य भी उसके बदले में दिया जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। कहीं पर-सयं रज्जसुक्काऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है । इस का अर्थ है – यदि वह स्वयं राज्यशुल्का - पट्टरानी होने की भाव अभिव्यक्त करे तो भी ले लेनी योग्य है । यदि सा स्वयं राज्यशुल्का पट्टराशी भवितुमिच्छति तथापि तत्स्वीकृत्य तां वृणीमिति भावः । जिस का गतिजनित श्रम दूर हो गया है वह आस्वस्थ तथा जिस का हृदयसंक्षोभ- व्यग्रता (घबराहट ) से रहित है उसे विस्वस्थ कहते हैं । जुत वा पत्त वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो-इन का शाब्दिक अर्थविभेद टीकाकार के शब्दों में निम्नलिखित है - -जुत्तं ति-संगतम्। पत्तं वत्ति-पात्रं वा. अवसरप्राप्तं वा । सलाहणिज्जं त्ति श्लाघ्यमिदम । सरिसो व त्ति-उचितः संयोगो वधवरयोरिति । अर्थात् युक्त संगत को कहते है । पात्र योग्य अथवा अवसरप्राप्त का नाम है अर्थात् ऐसे सम्बन्ध का यह समय है-इस अर्थ का बोधक पात्र शब्द है । श्लाघनीय श्लाघा-प्रशंसा के योग्य को कहते हैं । सदृश उचित और संयोग वधू वर के संबंध का नाम है । तात्पर्य यह है कि वर कन्या के संयोग में इन सब बातों के देखने की आवश्यकता होती है। -हट्ठ० करयल० जाव एयम- यहां के प्रथम बिन्दु से - तुट्टचित्तमाणं दिया पीइमणा परमसोमण स्सिया हरसवसविसप्पमाणहियया धाराहयकलंबुगं पिव समुस्ससिअरोमकूवा- इन पदों का ग्रहण करना चाहिये इन का अर्थ पृष्ठ २२७ तथा २२८ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये एक स्त्री के विशेषण हैं, जब कि प्रस्तुत में कौटुम्बिक पुरुषों के । लिंगगत तथा वचनगत भिन्नता के अतिरिक्त शेष अर्थगत कोई भेद नहीं है । तथा-जाव - यावत् -पद से विवक्षित पाठ २४६ पर लिखा जा चुका है। - राहाया जाव सुद्धप्पवेसा- यहां के जाव-यावत् पद से -कय बलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छिा - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद एकवचनांत है जब कि प्रस्तुत में बहुवचनान्त। -हतुट्ट. आसणाओ- यहां का बिन्दु पूर्वोक्त-चित्तमाणं दिए -से लेकर - समुस्ससिय. रोमकूवे - यहां तक के पदों का बोधक है । अन्तर मात्र इतना है कि प्रस्तुत में ये पद एकवचनान्त अपेक्षित है। प्रस्तुत सूत्र में वैश्रमणदत्त नरेश के द्वारा परमसुन्दरी दत्तपुत्री देवदत्ता को याचना तथा दत्त को (१) लड़की का शुल्क --उपहार लेने की प्रथा सभी कुलों में थी - ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आगमों में ऐसे भी प्रमाण हैं, जहां लड़की के लिये शुल्क नहीं भी दिया गया है। वासुदेव श्री कृष्ण ने अपने भाई गजसुकुमार के लिये सोमा की याचना की, परन्तु उस के उपलक्ष्य में किसी प्रकार का शुल्क दिया हो, ऐसा उल्लेख अन्तगढ़ सूत्र में नहीं पाया जाता । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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