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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [४७५ किन्नर-देवविशेष, मृग-हरिण, अष्टापद - पाठ पैरों वाला एक वन्य -- पशु जो हाथी को भी अपनी पीठ पर बैठा कर ले जा सकता है, चमरी गाय, हाथी, वनलता-लताविशेष, और पद्मलता- लताविशेष, इन सब के चित्रों से उस भवन की दीवारें चित्रित हो रही थी. । स्तम्भों के आर हीरे की बनी हुई वेदिकायों से वह भवन मनोहर था। वह भवन एक ही पंक्ति में विद्याधरों के युगलों-जोड़ों की चलती फिरती प्रतिमायों से युक्त था। वह भवन हजारों किरणों से व्याप्त हो रहा था। वह भवन अत्यधिक कान्ति वाला था। देखने वाले के मानों उस भवन में नेत्र गड़ जाते थे । उसका स्पर्श सुखकारी था । उस का रूप मनोहर था । उस की स्तूपिकएँ - बुर्जिएं सुवर्णों, मणियों और रत्नों की बनी हुई थीं । उस का शिखराग्रभाग-चोटी का अगला हिस्सा, पांच वणों वाले नानाप्रकार के घण्टों और पताकायों से सुशोभित था । उस में से बहुत ज्यादा श्वेत किरणों निकल रही थीं। वह लीपने पोतने के द्वारा महित-विभूषित हो रहा था । गोशीर्ष-मलयगिरि चन्दन, और सरस एवं रक्त चन्दन के उस में हस्तक-थापे लगे हुए थे । उस में चन्दन के कलश स्थापित किए हुए थे । चन्दन से लिप्त घटों के द्वारा उस के तोरण और प्रतिद्वारों-छोटे २ द्वारों के देशभाग -निकटवर्ती स्थान सुशोभित हो रहे थे। नीचे से ऊपर तक बहुत सी फूलमालाएं लटक रही थीं । उस में पांचों वर्षों के ताजे सुगन्धित फूलों के ढेर लगे हुए थे | वह कालागरु-कृष्णवर्णीय अगर नामक सुगन्धित पदार्थ, श्रेष्ठ कुन्दुरुक - सुगन्धित पदार्थविशेष, तुरुष्क-सुगन्धित पदार्थ विशेष इन सब की धूपों-धूमों की अत्यन्त सुगन्ध से वह बड़ा अभिराम -मनोहर था । वह भवन अच्छी २ सुगन्धों से सुगन्धित हो रहा था, मानों वह गन्ध की वर्तिका - गोली बना हुआ था। वह प्रासादीय -चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय-जिसे बारम्बार देख लेने पर भी अांखे न थके, अभिरूप-जिसे एक बार देख लेने पर भी पुनः दर्शन की लालसा बनी रहे और प्रतिरूप-जिसे जब भी देखो तब ही वहां नवीनता ही प्रतिभासित हो, इस प्रकार का बना हुआ था । ... "-पंचसयो दामो-" इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार आचार्य श्री अभयदेव सूर के शब्दों में यदि करने लगे तो "-पंचसयो दाउ -त्ति हिरण्यकोटि-सुवर्णकोटिप्रभृतीनां प्रेषणकारिकान्तानां पदार्थानां पंचशतानि सिंहसेनकुमाराय पितरौ दत्तवन्तावित्यर्थः । स च प्रत्येकं स्वजायाभ्यो दत्तवानिति -" इस प्रकार की जा सकती है, अर्थात् माता पिता ने विवाहोत्सव पर ५०० हिरण्यकोटि एवं ५०० सुवर्णकोटि से लेकर यावत् ५०० प्रेषणकारिकाए युवराज सिंहसेन को अर्पित की. तब उसने उन सब को विभक्त करके अपनी ५०० स्त्रियों को दे डाला । ५०० - संख्या वाले हिरण्यकोटि आदि पदार्थों का सविस्तर वर्णन निम्नोक्त है - पंचसयहिरएणकोडीओ पंचसयसुवरणकोडीओ पंचसयमउडे मउडप्पवरे पंचसयकडलजुएं कुडलजुयप्पवरे पंचसयहारे हारप्पवरे पंचसयअद्धहारे अद्धहारप्पवरे पंचसयए - गावलीनो एगावलिप्पवराओ एवं मुत्तावलीयो एवं कणगावलीअो एवं रयणावलीओ पंचसयकडगजोए कडगजोयप्पवरे एवं तुडियजोए, पंचसयख मजुयलाई खोमजुयलप्पवराइ एवं वडगनुयलाई एवं पहजुयलाई एवं दुगुल्लजुयलाई, पंचसयसिरीयो पंचसयहिरीयो एवं धिईश्रो कित्तीओ बुद्धीओ लच्छीओ, पंचसयनंदाइपंचसयभद्दाई पंचसयतले तलप्पवरे सव्वरयणामए , णियगवरभवणके ऊ पंचसयज्झए झयप्पवरे पंचसयवए वयप्पवरे दसगोसाहस्सिएणं वएणं, पंचसयनाडगाई नाडगप्पवराई बत्तीसवद्धणं नाडएणं, पंचसयासे आसप्पवरे For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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