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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ४६३ महावीर स्वामी ने इस प्रकार दुःखविपाक के अष्टम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। जम्बू ! जैसा मैंने भगवान् की परम पवित्र सेवा में रह कर उन से सुना है, वैसा तुम्हें सुना दिया है । इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है । । व्यक्ति को भी जिसे कि सूत्रकार प्रस्तुत अष्टम अध्ययन में शौरिकदत्त नाम के मत्स्यबन्ध - मच्छीमार का अतीत, अनागत और वर्तमान से सम्बन्ध रखने वाले जीवनवृत्तान्त का उपाख्यान के रूप में वर्णन किया गया जिस से हिंसा और उसके कटुफल का साधारण से साधारण ज्ञान रखने वाले भली प्रकार से बोध हो जाता है । पदार्थ वर्णन की वह शैली सर्वोत्तम है, ने अपनाया है । हिसा बुरी है, दुखों की जननी है, उस से अनेक प्रकार के पाप कर्मों का बन्ध होता है । इस प्रकार के वचनों से श्रोता के हृदय पर हिंसा के दुष्परिणाम ( बुराई) की छाप उतनी अच्छी नहीं रहती, जितनी कि एक कथारूप में उपस्थित किये जाने वाले वर्णन से पड़ती है । इसी उद्देश्य से शास्त्रकारों ने कथाशैली का अनुसरण किया है । शौरिकदत्त के जीवनवृत्तान्त से हिंसा से पराङ्मुख होने का साधक को जितना अधिक ध्यान आता है, उतना हिंसा के मौखिक निषेध से नहीं आता । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रस्तुत अध्ययनगत शौरिकदत्त के उपाख्यान से हिंसामय सावध प्रवृत्ति और उस से बान्धे गये पाप कर्मों के विपाक फल की दृष्टि में रखते हुए विचारशील पाठकों को चाहिये कि वे अपनी दैनिकचर्या और खान पान की प्रवृत्ति को अधिक से अधिक निरवद्य अथच शुद्ध बनाने का यत्न करें, तथा मानव भव की दुलभता का ध्यान रखते हुए अपने जीवन को अहिंसक अथच प्रेममय बनाने का भरसक प्रयत्न करें । ताकि उनका जीवन जीवमात्र के लिये अभयप्रद होने के साथ २ स्वयं भी किसी से भय रखने वाला न बने, इसी में मानव का भावी कल्याण अथच सर्वतोभाव श्रेय निहित है। 1 || अष्टम अध्याय समाप्त ॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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