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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिन्दी भाषा टीका सहित । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय ] समय व्यतीत कर रहा है । मूलार्थ - तदनन्तर किसी अन्य समय पर शूजा द्वारा पकाए गए, तले गए और भूने गए मत्स्यमांसों का आहार करते हुए उस शौरिक मत्स्यबन्ध-मच्छीमार के गले में मच्छी का कांटा लग गया. जिस के कारण वह महतो वेदना का अनुभव करने लगा । तब नितान्त दुःखी हुए शौरिक ने अपने अनुचरों को बुलाकर इस प्रकार कहा कि हे भद्रपुरुषो ! शौरिकपुर नगर के त्रिकोण मार्गों यावत् सामान्य मार्गों पर जा कर ऊंचे शब्द से इस प्रकार उद्घोषणा करो कि हे महानुभावो ! शौरिकदत्त के गले में मत्स्य का कांटा लग गया है, यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र आदि उस मत्स्यकंटक को निकाल देगा, तो शौरिकदत्त उसे बहुत सा धन देगा | तब कौटुम्बिक पुरुषों - अनुचरों ने उस की आज्ञानुसार सारे नगर में उद्घोषणा कर दी । उस उद्घोषणा को सुन कर बहुत से वैद्य और वैद्यपुत्र आदि शौरिकदत्त के घर आये, कर वमन, छर्दन, पीड़न, कवलग्राह, शल्योद्धरण और विशल्यकरण आदि उपचारों से शौरिकद के गले के कांटे को निकालने तथा पूत्र आदि को बन्द करने का उन्होंने भरसक प्रयत्न किया, परन्तु उस में वे सफल नहीं हो सके अर्थात् उन से शौरिकदत्त के गले का कांटा निकाला नहीं जा सका और ना ही पी एवं रुधिर ही बन्द हो सका, तब वह श्रान्त, तान्त और परितान्त हो अर्थात् निराश एवं उदास हो कर वापिस अपने २ स्थान को चले गये । तब वह वैद्यों को प्रतिकार - इलाज से निर्विण - निराश (खिन्न) हुआ २ शौरिकदत्त उस महती वेदना को भोगता हुआ सूख कर यावत् अस्थिपंजर मात्र शेष रह गया, तथा दुःखपूर्वक समय व्यतीत करने लगा । भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार अशुभ कर्मों का फल भोग रहा है। वह शौरिकदत्त पूर्वकृत यावत् [ ४५७ For Private And Personal टीका - कर्मग्रन्थों में कर्म की प्रकृति और स्थिति आदि का सविस्तर वर्णन बड़े ही मौलिक शब्दों में पाया जाता है। कोई कर्म ऐसा होता है, जो काफी समय के बाद फलोन्मुख होता है अर्थात् उदय में श्राता है, तथा कोई शीघ्र ही फलप्रद होता है । यह सब कुछ बन्धसमय की स्थिति पर निर्भर करता है । कर्म के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध आदि के भेदोपभेदों के वर्णन करने का यहां पर असर नहीं है तथा विस्तारभय से उन का उल्लेख भी नहीं किया गया । यहां तो संक्षेप से इतना ही बतला देना उचित है कि सामान्यतया कर्म दो प्रकार के होते हैं - एक वे जो जन्मान्तर में फल देने वाले, दूसरे वे जो कि इसी जन्म में फल दे डालते हैं । शौरिकदत्त भच्छीमार के जीवनवृत्तान्त से यह पता चलता है कि उस के तीव्रतर करकमों का फल उसे इस जन्म में मिल रहा है, अर्थात् वह अपने किये कर्म का फल इस जन्म में भी भुगत रहा है । शौरिकदत्त का व्यापार था पका हुआ मांस बेचना, तथा इस व्यवसाय के साथ २ वह उस का स्वयं भी प्रहार किया करता था । तात्पर्य यह है कि वह मत्स्यादि जीवों के मांस का विक्रेता भी था और स्वयं भोक्ता भी । शूलाप्रोत कर पकाए गए, तैलादि में तले और अंगारों पर भूने गए मत्स्यादि जीवों के मांसों के साथ विविध प्रकार की मदिराओं का सेवन करना, उस के व्यवहारिक जीवन का एकमात्र कर्तव्य सा बना हुआ था । इसी में वह अपने जीवन को सार्थक एवं सफल समझता था । किन्तु पापकर्म से यह आत्मा उसी प्रकार मलिन होनी आरंभ हो जाती है, जिस प्रकार मलिन शरीर के सम्पर्क में आने वाला नवीन श्वेत वस्त्र । वस्त्रधारी कितना भी चाहे कि उस का वस्त्र मलिन न होने पावे परन्तु जिस तरह वह वस्त्र उस मलिन शरीर के सम्पर्क में आने से अवश्य मैला हो जाता है, उसी प्रकार
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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