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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । और भूनते, तथा उन्हें राजमार्ग में विक्रयाथें रख कर उनके द्वारा वृत्ति-आजीविका करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे । इस के अतिरिक्त शौरिकदत्त स्वयं भी उन श लाप्रात किए हुए, भने हुए और तले हुए मत्स्यमांसों के साथ विविध प्रकार की सुराओं का सेवन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। टीका-प्रकृति का प्रायः यह नियम है कि पुत्र अपने पिता के कृत्यों का ही अनुसरण किया करता है । पिता जो काम करता है प्रायः पुत्र भी उसी को अपनाने का यत्न करता है, और अपने को वह उसी काम में अधिकाधिक निपुण बनाने का उद्योग करता रहता है । समुद्रदत्त मत्स्यबन्धमच्छीमार था, परम अधर्मी और परम दुराग्रही था, तदनुसार शौरिकदत्त भी पतृकसम्पत्ति का अधिकारी होने के कारण इन गुणों से वंचित नहीं रहा । पिता की मृत्यु के कुछ दिनों के बाद शौरिकदत्त ने पिता के अधिकारों को अपने हाथ में लिया अर्थात पिता की भांति अब वह सारे मुहल्ले का मुखिया बन गया । मुहल्ले का मुखिया बन जाने के बाद शौरिकदत्त भी पिता को तरह अधर्मसेवी अथच महा लोभी और दुराग्रही बन गया । अपने हिसाप्रधान व्यापार को अधिक प्रगति देने के लिये उसने अनेक ऐसे वेतनभोगी पुरुषों को रखा जोकि यमुना नदी में जा कर तथा छोटी २ नौकाओं पर बैठ कर भ्रमण करते तथा अनेक प्रकार के साधनों के प्रयोग से विविध प्रकार की मछलियों को पकड़ते तथा धूप में सुखाते, इसी भांति, अन्य अनेकों वेतनभोगी पुरुष धूप से तप्त - सूखे हुए उन मत्स्यों को ग्रहण करते और उन के मांसों को शूल द्वारा पकाते और तैल से तलते तथा अंगारादि पर भून कर उन को राजमार्ग में रख कर उनके विक्रय से द्रव्योपार्जन करके शौरिकदत्त को प्रस्तुत किया करते थे । इस के अतिरिक्त वह स्वयं भी मत्स्यादि के मांसों तथा ६ प्रकार की सुरा आदि का निरन्तर सेवन करता हुआ सानन्द समय व्यतीत कर रहा था । दिन्नभतिभत्तयणा-आदि पदों का अर्थसम्बन्धी विचार निम्नोक्त है - . १-दिन्नभतिभत्तवेयणा-" इस पद का अर्थ पृष्ठ २१६ पर लिखा जा चुका है ।। २-एगट्रिया-" शब्द का अर्धमागधीकोषकार ने -एकास्थिका-ऐसा संस्कृत प्रतिरूप देकर -छोटी नौका यह अर्थ किया है, परन्तु प्राकृत सब्दमहार्णव नामक कोष में देश्य – देश विशेष में बोला जाने वाला पद मान कर इस के नौका, जहाज़ ऐसे दो अर्थ लिखे हैं ३-दहगलणं-हदगलनम् हृदस्यमध्ये मत्स्यादिप्रहरणार्थभ्रमणं जलनिस्सारण वा -" अर्थात् हृद बड़े जलाशय एवं झील का नाम है, उस के मध्य में मच्छ आदि जीवों को ग्रहण करने के लिये किये गये भ्रमण का नाम हृदगलन है । अथवा- हृद में से जल के निकालने को हृदगलन कहते हैं । अथवा - मत्स्य आदि को पकड़ने के लिये वस्त्रादि से ह्रद के जल को छानना हृदगलन कहा जाता है। अधमागधी कोष में हृदगजन - शब्द का "-मछली आदि पकड़ने के लिये झरने पर घूमना-शोध निकालना -..' ऐसा अर्थ लिखा है। ४-दहमलणं-हृदमलनं, हृदमध्ये पौनःपुन्येन परिभ्रमणं, जले वा निस्सारिते पंकमदनं." अर्थात् हद के मध्य में मछली आदि जीवों को ग्रहण करने के लिये पुनः पुनः- बारम्बार परिभ्रमण करना, अथवा-हृद में से पानी निकाल कर अवशिष्ट पंक-कीचड़ का मर्दन करना हृद्मलन कहलाता है। अर्धमागधीकोष में हृदमलन के"-१-झरने में तैरना और २-त्रोत में चक्र लगाना-" ये. दो अर्थ पाये जाते है। ५-दहमदणं-हृदमर्दनम् थाहरादिप्रक्षेपेण हृदजलस्य विक्रियाकरणम्-" अर्थात् हृद के मध्य में थूहर (एक छोटा पेड़ जिस में गांठों पर से डण्डे के आकार के डण्ठल निकलते हैं, और इस का दूध बड़ा विषेला होता है) आदि के दूध को डाल कर उस के जल को विकृत-ख़राब कर For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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