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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित। एक बार भी जो ब्राह्मण मदिरा का सेवन करता है, उस का ब्राह्मणपना दूर हो जाता है और वह शुद्रभाव को उपलब्ध कर लेता है। चित्त भ्रान्तिर्जायते मद्यपानात् , भ्रान्ते चित्ते पापचर्यामुपेति । पापं कृत्वा दुर्गति यान्ति मूढास्तस्मान्मद्यं नैव पेयं न पेयं ॥१॥ (हितोपदेश) अर्थात् मदिरा के पान करने से चित्त में भ्रान्ति उत्पन्न होती है, चित्त के भ्रान्त होने पर मनुष्य पापाचरण की ओर झुकता है, और पापों के आचरण से अज्ञानी जीव दुर्गति को प्राप्त करते हैं। इस लिए मदिरा-शराब को नहीं पीना चाहिए. नहीं पीना चाहिए। एकतश्चतुरो वेदाः , ब्रह्मचर्य तथैकतः । एकतः सर्वपापानि, मद्यपानं तथैकतः ॥ (अज्ञात) अर्थात् तुला में एक और चारों वेद रख लिये जाएं,. तथा एक ओर ब्रह्मचर्य रखा जाए तो दोनों एक समान होते हैं, अर्थात् ब्रह्मचर्य का माहात्म्य चारों वेदों के समान है । इसी भांति एक ओर समस्त पाप और एक ओर मदिरा का सेवन रखा जाए तो ये भी दोनों समान ही है । तात्पर्य यह है कि मदिरा के सेवन करने का अर्थ है-सब प्रकार के पापों का कर डालना । ख्यातं भारतमण्डले यदुकुलं, श्रेष्ठं विशालं परम् । ____ साताद् देवषिनिर्मिता वसुमतीभूषा पुरी द्वारिका ॥ एतद् युग्मविनाशनं च युगपज्जातं क्षणात्सर्वथा ।। तन्मूलं मदिरा नु दोषजननी, सर्वस्वसंहारिणी ॥१॥ (अज्ञात) अर्थात् यदुकुल भारतवर्ष में प्रसिद्ध, श्रेष्ठ, विशाल और उत्कृष्ट था, तथा द्वारिका नगरी साक्षात् देवों की बनाई हुई और पृथ्वी की भूषा - शोभा अथवा भूषणस्वरूप थी, परन्तु इन दोनों का विनाश एक साथ सर्वथा क्षणभर में हो गया । इस का मूलकारण दोषों को जन्म देने वाली और सर्वस्व का संहार करने वाली मदिरा- शराब ही थी । जित पीवे मति दूर होय बरल पवै नित्त श्राय । अपना पराया न पछाई खस्महु धक्के खाय । जित पीते खस्म विसरै दरगाह मिले सजाय । झूठा मद मूल न पीचई जेका पार बसाय ॥ सिक्खशास्त्र) अर्थात् जिस के पीने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और हृदयस्थल में खलबली मच जाती है। इस के अतिरिक्त अपने और पराए का ज्ञान नहीं रहता और परमात्मा को ओर से उसे धक्के मिलते हैं। जिस के पीने से प्रभु का स्मरण नहीं रहता और परलोक में दण्ड मिलता है ऐसे झूठे-निस्सार नशों का जहां तक बस चले कभी भी सेवन नहीं करना चाहिये । औगुन कहीं शराब का ज्ञानवन्त सुनि लेय । मानस से पतुपा करे, द्रव्य गांठि का देय ।। अमल अहारी पातमा, कब हू न पावे पार । कहे कबीर पुकार के, त्यागो ताहि विचार र उर्दू कविता में शराब को “दुखतरे रज" (अगर की पुत्री) के नाम से अभिहित किया जाता है। इसी बात को लक्ष्य में रख कर सुप्रसिद्ध उर्दू के कवि अकबर ने व्यंगोक्ति द्वारा शराब की कितने सुन्दर शब्दों में निन्दा की है। __ उस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर । खैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुश्रा ॥ 'मय है इक आग, न तन इस में जलाना हर्गिज़, मय है इक नाग, करीब इस के न जाना हगिज़। मय है इक दाम, न दिल इस में फंसाना हर्गिज़, मय है इक जहर, न इस ज़हर को खाना हगिज़ । (१-शराब । २-जाल) भूल कर भी उसे तुम मुंह न लगाना हर्गिज़, For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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