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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४३० ] श्री विपाक सूत्र - । अष्टम अध्याय __ मूलार्थ-उस काल और उस समय शौरिकावतंसक नामक उद्यान में श्रमण भावान् महावीर स्वामी पधारे । यावत् परिषद् और राजा वापिस चले गये । उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ-प्रधान शिष्य गौतम स्वामी यावत् शौरिकपुरनगर में उच्च -धनो, नीचनिर्धन तथा मध्य-सामान्य घरों में भ्रमण करते हुए यथेष्ट आहार लेकर नगर से बाहिर निकलते हैं, तथा मत्स्यबंधपाटक के पास से निकलते हुए उन्हों ने अत्यधिक विशाल मनुष्यसमुदाय के मध्य में एक सूखे हुए, बुभुक्षित, निर्मोंस और अस्थिवर्मावनद्ध -जिस का चर्म शरीर की हड्डियों से चिपटा हुआ. उठते बैठते समय जिस की अस्थिएं किटिकिटिका शब्द कर रही हैं, नीलो शाटक वाले एवं गले में मत्स्यकंटक लग जाने के कारण कष्टात्मक, करुणाजनक और दीनतापूर्ण वचन बोलते हुए पुरुष को देखा, जो कि पूयकवलों, रुधिरकवलों और कुमिकवलों का वमन कर रहा था। उस को देख कर उन के मन में निम्नोक्त संकल्प उत्पन्न हुश्रा अहो ! यह पुरुष पूर्वकृन यावत् कर्मों से नरकतुल्य वेदना का उपभोग करता हुआ समय बिता रहा है-इत्यादि विचार कर नगार गौतम श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास यावत् उसके पूर्वभव की पृच्छा करते हैं । भगवान् प्रतिपादन करने लगे । टीका -एक बार शौरिकपुर नगर में चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे, वे शौरिकावतंसक उद्यान में विराजमान हुए । शौरिकपुर निवासियों ने उन के पुनीत दर्शन और परमपावनी धर्मदेशना से भरि २ लाभ उठाया । प्रतिदिन भगवान् की धर्मदेशना सुनते और उस का मनन करते हुए अपने आत्मा के कल्मष - पाप को धोने का पुण्य प्रयत्न करते । एक दिन भगवान् की धर्मदेशना को सुन कर नगर की जनता जब वापिस चली गई तो भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य श्री गौतम स्वामी जो कि भगवान् के चरणों में विराजमान थे - बेले के पारणे के निमित्त नगर में भिक्षा के लिये जाने की आज्ञा मांगते हैं । श्राज्ञा मिल जाने पर गौतम स्वामी ने शौरिकपुर नगर की ओर प्रस्थान किया । वहां नगर में पहुँच साधुवृत्ति के अनुसार आहार की गवेषणा करते हुए धनिक और निधन आदि सभी घरों से यथेष्ट भिक्षा लेकर शौरिकपुर नगर से निकले और आते हए समीपवर्ती मत्स्यबंधपाटक-मच्छीमारों के महल्ले में उन्हों ने एक पुरुष को देखा। उस मनुष्य के चारों ओर मनुष्यों का जमघट लगा हुआ था । वह मनुष्य शरीर से बिल्कुल सूखा हुआ, बुभुक्षित तथा भखा होने के कारण उस के शरीर पर मांस नहीं रहा था, केवल अस्थिपंजर सा दिखाई देता था हिलने चलने से उस के हाड किटिकिटिका शब्द करते, उस के शरीर पर नीले रंग की एक धोती थी, गले में मच्छी का कांटा लग जाने से वह अत्यन्त कठिनाई से बोलता, उस का स्वर बड़ा ही करुणाजनक तथा नितान्त दीनतापूर्ण था । इस से भी अधिक उसकी दयनीय दशा यह थी कि वह मुख में से पूय रुधिर और कृमियों के कवलों - कुल्लों का वमन कर रहा था । उसे देख कर भगवान् गौतम सोचने लगे - श्रोह ! कितनी भयावह अवस्था है. इस व्यक्ति की । न मालुम इसने पूर्वभव में ऐसे कौन से दुष्कर्म किये हैं, जिन के विपाकस्वरूप यह इस प्रकार की नरकसमान यातना को भोग रहा है ?, अस्तु, इस के विषय में भगवान् से चल कर पूछेगे-इत्यादि विचारों में निमग्न हुए गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित होते हैं । वहां आहार को दिखा तथा आलोचना आदि से निवृत्त हो कर वे भगवान् से इस प्रकार बोले - प्रभो ! आप श्री की आज्ञानुसार मैं नगर में पहुंचा, वहां गोचरी के निमित्त भ्रमण करते हुए For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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