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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित। [४२७ मच्छंधे परिवसति, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे । तस्स णं समुद्ददत्तस्स समुद्ददत्ता भारिया होत्था, अहीण । तस्स णं समुद्ददत्तस्स मच्छंधस्स पुत्ते समुद्ददलाए भारियाए अत्तए सोरियदत्ते नामं दारए होत्था, अहीण । पदार्थ-अट्ठमस्ल-अष्टम अध्ययन का । उक्वेवो-उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् समझ लेना चाहिये । एवं खजु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू!-हे जम्बू !। तेणं कालेणं २-उस काल और उस समय में। सोरियपुर-शौरिकपुर नाम का । णगरं होत्था-नगर था, वहां । सोरियवडिंसगं-शौरिकावतंसक नामक । उज्जाणं-उद्यान था, उस में । सोरियो जक्खो-शौरिक नामक यक्ष था अर्थात् शौरिक यक्ष का वहां पर स्थान था। सोरियदत्त राया-शौरिक दत्त नामक राजा था। तस्स णं-उस । सोरियपरस्स-शौरिकपुर णगरस्स-नगर के । वहिया–बाहिर । उत्तरपुरस्थिमे-उत्तर पूर्व। दिसीभाए-दिग्विभाग में अर्थात् ईशान कोण में । एगे-एक । मच्छंधपाडर-मत्स्यबन्धपाटक-मच्छीमारों का मुहल्ला। होत्था-था। तत्थ णं-वहां पर । समुददत्त'- समुद्रदत्त । नाम-नाम का । मच्छंधे--मत्स्यबन्ध-मच्छीमार । परिवसति-रहता था, जो कि । अहम्मिए-अधार्मिक । जाव-यावत् । दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द - बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। तस्स णं-उस । समुद्ददत्तस्स-समुद्रदत्त की। समुद्ददत्तासमुद्रदत्ता नाम की। भारिया--भार्या । होत्था-थी, जोकि । अहीण-अन्यून एवं निदोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाली थी। तस्स णं-उस । समुद्ददत्तस्त-समुद्रदत्त । मच्छंधस्स-मत्स्यबन्ध का । पुत्ते-पुत्र । समुदत्तार--समुद्रदत्ता। भारियाय.-भार्या का । अत्तर -आत्मज । सोरियदत्त -शौरिकदत्त । नाम--नाम का । दारए-दारक-- बालक । होत्था-था, जोकि । अहीणअन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाला था। मूलार्थ-अष्टम अध्ययन के उत्क्षेप-प्रस्तावना की भावना पूर्ववत् कर लेनी चाहिये। हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में शौरिकपुर नाम का एक नगर था, वहां शौरिकावतंसक नाम का उद्यान था, उस में शौरिक नामक यक्ष का आयतन - स्थान था, वहां के राजा का नाम शौरिकदत्त था । शौरिकपुर नगर के बाहिर ईशान कोण में एक मत्स्यबंधों-मच्छीमारों का पाटक-मुहल्ला था, वहां समुद्रदत्त नाम का मत्स्यबंध-मच्छीमार निवास किया करता था जोकि अधमा यावत् दुष्प्रत्यानन्द था। उमकी समुद्रदत्ता नाम की अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाली भार्या थी, तथा इनके शौरिक दत्त नाम का एक सोंगसम्पूणे अथव परम सुन्दर बालक था। टीका-चम्पा नगरी के बाहिर पूर्णभद्र चैत्य-उद्यान में आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य परिवार के साथ विराजमान हो रहे हैं । नगरी की भावुकजनता उनके उपदेशामृत का प्रतिदिन नियमित रूप से पान करती हुई अपने मानवभव को कृतार्थ कर रही है। श्रार्य सुधर्मा स्वामी के प्रधान शिष्य श्री जम्बू स्वामी उनके मुखारविन्द से दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन का श्रवण कर उसके परमार्थ को एकाग्र मनोवृत्ति से मनन करने के बाद विनम्र भाव से बोले कि हे भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी के द्वारा प्रतिपादित सप्तम अध्ययन के अर्थ को तो मैंने आपश्री के मुख से श्रवण कर लिया है, जिस के लिये मैं आपश्री का अत्यन्तात्यन्त कृतज्ञ हूं, परन्तु मुझे अब दुःखविधाक के अष्टम अध्ययन के श्रवण की उत्कण्ठा हो रही है । अत: श्राप दु:खविपाक के आठवें अध्ययन के अर्थ को सुनाने की कृपा करें, जिसे कि आपने श्रमण भगवान महावीर स्वामी की पर्युपासना में रहकर श्रवण किया है-इन्हीं भावों को सूत्र. कार ने अहमस्स उक्खेवो-इतने पाठ में गर्भित कर दिया है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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