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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [४१७ तथा प्रकृत सूत्रपाठ में उल्लेख किये गये – “जहा विजयमित्त कालधम्पुणा संजुत्त गंगादत्ता वि-" तथा "- उम्बग्दत्त वि पिच्छ्र जहा उफ्रियर- इन पदों से दुखविपाक के उज्झितक नाम के दूसरे अध्ययन का स्मरण कराया गया है । तात्पर्य यह है कि उम्बरदत्त के विषय में माता पिता का देहान्त और घर से निकाला जाना -यह सब वर्णन उज्झितक कुमार की तरह जान लेना चाहिये । तथा "-१-सासे, २-खासे जाव१६-कोढे -" यहां पठत जाव-यावत् पद से प्रथम अध्ययनगत पृष्ठ ५७ पर पढ़े गए "-३-जरे, ४ --दाहे. ५-कुच्छिसूले, ६-भग दरे, ७- अरि से, ८-अजीरते, ९ दिट्टी, १०-मुद्रसूले, ११ --अकार ए, १२ -अच्छिवेयणा, १३ - कराणवेयणा, १४- कराडू, १५ - द प्रोदरे ..." इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों की व्याख्या पृष्ठ ५९ से लेकर पृष्ठ ६४ तक की जा चुकी है। -सडियहत्थ जाव विहरति-- यहां के -जाव-यावत्-पद से पृष्ठ ३७६ पर पड़े गए लिएसडियपारंगलिएसडियराणनासिर-से ले कर देहबजियार वित्ति का यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद द्वितीयान्त हैं, जब कि प्रस्तुत में एकवचनांत पदों का ग्रहण करना अपेक्षित है । अतः अर्थ में एकवचनान्त पदों की भावना कर लेनी चाहिये । -पुरा जाब विहरति- यहां पठित जाव-यावत -पद से विवक्षित पाठ पृष्ठ २७१ पर लिखा जा चुका है । ___प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जो यह लिखा है कि सेठ सागरदत्त तथा सेठानो गंगादत्ता ने बालक का नाम उम्वरदत्त इसलिये रखा था कि वह उम्बरदत्त यक्ष के अनुग्रह से अर्थात् उस की मनौती मानने से संप्राप्त हुआ था, इस पर यह आशंका होती है कि कर्मसिद्धान्त के अनुसार जो नारी किसी भी जीवित संतति को उपलब्ध नहीं कर सकती, फिर वह एक यक्ष की पूजा करने या मनौती मानने मात्र से किसी जीवित संतति को कैसे उपलब्ध कर लेती है ?, क्या ऐसी स्थिति में कमसिद्धान्त का व्याघात नहीं होने पाता ?, इस आशंका का उत्तर निम्नोक्त है - शास्त्रों में लिखा है कि जो कुछ भी प्राप्त होता है वह जीव के अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के कारण ही होता है। कमहीन प्राणी लाख प्रयत्न कर लेने पर भी अभिलषित वस्तु को प्राप्त नहीं कर सकता, जब कि कर्म के सहयोगी होने पर वह अनायास ही उसे उपलब्ध कर लेता है। अतः गंगादत्ता सेठानी को जो जीवित पुत्र की संप्राप्ति हुई है, वह उसके किसी प्राक्तन पुण्यकर्म का ही परिणाम है, फिर भले ही वह कर्म उसकी अनेकानेक संतानों के विनष्ट हो जाने के अनन्तर उदय में आया था। सारांश यह है कि गंगादत्ता को जो जीवित पुत्र की उपलब्धि हुई है वह उसके किसी पूर्वसंचित पुण्यविशेष का ही फल समझना चाहिये । उसमें कर्मसिद्धान्त के व्याघात वाली कोई बात नहीं है । अस्तु, अब पाठक यक्ष की मनौती का उस बालक के साथ क्या सम्बन्ध है , इस प्रश्न के उत्तर को सुनें न्यायशास्त्र में समवायी, असम पायी और निमित्त ये तीन कारण' माने गये हैं । जिस (१) कारणं त्रिविध समवाय्यसमायिनिमित्तभेदात् । यत्समवेतं कार्यनुत्पद्यते तत्समवायिकारणम् । यदा-तन्तवः पटस्य । पटश्च स्वगतरूपादेः । कार्येण कारणेन वा सहकस्मिन्नर्थे समवेतं सत् कारणमसमवाधिकारणम् । यथा -तन्तुसंयोगः पटस्य । तन्तुरूपं पटरूपस्य । तदु. भयभिन्नं कारणं निमित्तकारणम् । यथा-तुरीवेमादिक पटस्य । (तर्कसंग्रहः) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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