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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । - 1 पट तथा शारिका पहने हुए। पुक्खरिणीप- पुष्करिणी से । पच्चुत्तरति पच्चुत्तरित्ता बाहिर आती है, बाहिर श्राकर । तं - उस । पुष्फ० - पुष्प वस्त्रादि को । गेण्हति गेरिहत्ता - ग्रहणं करती है, ग्रहण कर । जेणेव - जहां | उ बरदत्तस्स - उम्बरदत्त । जक्खस्स - यक्ष का जक्खायतणे - यज्ञायतन - स्थान था । तेणेव वहां पर । उवागच्छइ उवागच्छित्ता - श्रा जाती है, आ कर । उम्बरदत्तस्स उम्बरदत्त । जक्वस्स यक्ष का । आलोप - अवलोकन कर लेने पर । परणामं प्रणाम । करेति करिता-करती है, प्रणाम करके । लोमहत्थं - लोमहस्त - मोरपिच्छी को । परामुसति - ग्रहण करती है । परा मुसित्ता प्रहण कर । उंबरदतं जलं - उम्बरदत्त यक्ष की । लोमहत्थपणं - लोमहस्तक से मयूरपिच्छनिर्मित प्रमार्जिनी से । पमज्जति पमज्जित्ता - प्रमार्जना करती है, उस का रज दूर करती है, प्रमार्जन कर | दगधारा - जलधारा मे I श्रब्भुक्खेति श्रब्भुक्खित्ता-स्नान कराती है, स्नान करा कर पम्हल०- पक्ष्मयुक्त - रोमों वाले तथा कषाय रंग से रंगे हुए सुगंधयुक्त सुन्दर वस्त्र से । गायलट्ठि - गात्रयष्टि को उस के शरीर को । ओलूहेति प्रोलूहित्ता - पोंछती हैं, पोछ कर । सेयाइ - श्वेत । वत्थाई वस्त्रों को । परिहेति परिहिता पहनाती है, पहना कर महरिहं - महार्ह - बड़ों के योग्य । पुष्कारुहणं - पुष्पारोहण – पुष्पार्पण करती है, पुष्प चढाती है । वत्थारुहणं – वस्त्रारोहण - वस्त्रार्पण | मल्लारुहणं - मालार्पण | गंधारुहणं - गन्धार्पण और चुराणारुहणं - चूर्ण (नैवेद्यविशेष अर्थात् देवता को अर्पण किये जाने वाले केसर आदि पदार्थ ) को अर्पण | करेति करिता-करती है, करके । धूवं- धूप को । डहति डहित्ता - जलाती है, जलाकर । जाणुषायपडिया-घुटनों के बल उस यक्ष के चरणों में पड़ी हुई । एवं - इस प्रकार । वयासी कहती है । देवापिया ! - हे देवानुप्रिय ! । जति णं - यदि । अहं - मैं । दारगं वा जीवित रहने वाले बालक अथवा । दारिगं वा बालिका का पयामि-जन्म दूं । तो णं - तो मैं जाब - यावत् । उवाइर्णाति उवाइणिता-याचना करती है अर्थात् मन्नत मनाती है, मन्नत मनाकर । जामेव दिसं-जिस दिशा से । पाउब्भूता - आई थी। तामेव दिसं-उसी दिशा की ओर। पडिगता - चली गई । मूलार्थ - - तब सागरदत्त सार्थवाह से अभ्यनुज्ञात हुई अर्थात् आज्ञा मिल जाने पर वह गंगादत्ता भार्या विविध प्रकार के पुष्प वस्त्रादि रूप पूजासामग्री ले कर मित्रादि की महिलाओं के साथ अपने घर से निकली और पाटलिषण्ड नगर के मध्य से होती हुई एक पुष्करिणीवापी के समीप जा पहुंची, वहां पुष्करिणी के किनारे पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, माल्यों और अलंकारों को रख कर उसने पुष्करिणी में प्रवेश किया, वहां जलमज्जन और जलक्रीडा कर कौतुक तथा मंगल ( मांगलिक क्रियायें ) करके एक आर्द्र पट और शाटिका धारण किए हुए वह पुष्करिणी से बाहिर आई, बाहिर आकर उक्त पुष्पादि पूजासामग्री को लेकर उम्बरदत्त यक्ष के यज्ञायतन के पास पहुंची और वहां उसने यक्ष को नमस्कार किया, फिर लोमहस्तकलेकर उसके द्वारा यक्षप्रतिमा का प्रमार्जन किया, तत्पश्वात् जलधारा से उस 1 For Private And Personal - | ४०७ को (यक्ष प्रतिमा को ) स्नान कराया, फिर कषाय रंग वाले - गेरू जैसे रंग से रंगे हुए सुगन्धित एवं सरोमसुकोमल वस्त्र से उसके अंगों को पोंछा, पोंछ कर श्वेत वस्त्र पहनाया, वस्त्र पहिना कर महाईasों के योग्य पुष्पारोहण, वस्त्रारोहण, गन्धारोहण, माल्यारोहण और चूर्णारोहण किया । तत्पश्चात् धूप धुखाती है, धूप धुखा कर यक्ष के आगे घुटने टेक कर पांव पड़ कर इस प्रकार निवेदन करती है हे देवानुप्रिय ! यदि मैं एक भी (जीवित रहने वाले ) पुत्र या पुत्री को जन्म
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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