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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सप्तम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [ ४०३ ३ - सपुराणाश्रो- सपुण्याः - " अर्थात् पुण्य से युक्त स्त्रियां सपुण्या कहलाती हैं । ४ – कयत्था - कृतार्थाः - " अर्थात् जिन के अर्थ - प्रयोजन निष्पन्न - सिद्ध हो चुके हैं, उन्हें कृतार्था कहा जाता है Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५- कयलक्खाओ कृतलक्षगा:-" अर्थात् कृत - फलयुक्त हैं लक्षण- सुखजन्य हस्तादिगत शुभ रेखाऐं जिन की, उन्हें कृतलक्षणा कहते हैं । ६ नियम कुच्छि संभूयाई - निजस्य कुक्षौ उदरे संभूतानि समुत्पन्नानीति – निजकुक्षि - संभूतानि निजात्यानीत्यर्थः " अर्थात् निज - अपने उदर - पेट से संभूत- उत्पन्न हुई अपत्य - सन्तानें निजकुक्षिसंभूत कहलाती हैं । स्तनों के ७ - थणदुद्धलुगाई - स्तनदुग्धे लुब्धकानि यानि तानि स्तनदुग्धलुब्धकानि - " अर्थात् दूध में लुब्धक अभिलाषा रखने वालीं अपत्य - स्तनदुग्धलुब्धक कहलाती हैं । -महुरसमुल्लावगाईं - समुल्लापः बालभाषणं स एव समुल्लापकः, मधुरः समुल्तान को येषां तानि मधुरसमुल नायकानि " अर्थात् मधुर:- सरस समुल्तापक-बालभाषण करने वालीं अपत्य मधुरस मुल्लापक कही जाती हैं । ८- ९ - मम्मण पयंपियाई - मन्मनम् - इत्यव्यक्तध्वनिरूपं प्रजल्पितं भाषणं येषां तानि मन्मनप्रजल्पितानि - " अर्थात् मन्मन इस प्रकार के अव्यक्त शब्दों के द्वारा बोलने वालीं अपत्य - मन्मनप्रजल्पित कही जाती हैं । १० - थणमूना कक्खदेखभागं अतिसरमा गाई - स्तनमूलात् कक्षदेराभागमभिसर त्रि- अर्थात् जो स्तन के मूलभाग से ले कर कज्ञ (काँख) तक के भाग में अभिसरण करते रहते हैं वे । भरण का अर्थ है निर्गम - प्रवेश अर्थात् जो अपत्य कभी स्तनमूल से निकल कर कक्षभाग में प्रवेश करती है और कभी उस से निकल जाती हैं । ११ - मुद्रगाई – मुग्धकानि, सरल हृदयानि - " अर्थात् सरल हृदय छल कपट से रहित एवंविशुद्ध हृदय वालीं अपत्य मुग्धक कहलाती हैं । १२ - पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गोरिहउ उच्डंगनिवेसिया - पुनश्व कोमलं यत्कमलं तेनोपमा ययोस्ते तथा ताभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्संगनिवेशितानि के स्थापितानि - " अर्थात् जो कमल के समान कोमल हाथों द्वारा पकड़ कर गोदी में बैठा रखी हैं, अथवा वे अपत्य जिन्हें उन्हीं के कमल - सदृश हाथों से पकड़ कर गोदी में बैठा रखा है । तात्पर्य यह है कि माता कई बार प्रेमातिरेक से बच्चों को गोदी में लेने के लिये अपनी भुजाओं को फैलाती हैं, प्रसूत भुजाओं को देख कर बालक अपनी लड़खड़ाती टांगों से लुढकता हुआ या चलता हुआ माता की ओर बढ़ता है, तत्र माता झटिति उसे अपने कमलसदृश कोमल हाथों से छाती से लगा लेती है और गोदी में बैठा लेती है, अथवा बालकों के २ हाथों को पकड़ चलाती हुई उन्हें गोदी में बैठा लेती है, इन्हीं भावों को सूत्रकार महानुभाव द्वारा ऊपर के पदों में अभिव्यक्त किया गया है। पकड़ कर एवं उठा कर कमलसमान कोमल छोटे १३ - दिति समुल्लावर सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पभणिते इन पदों की व्याख्या में दो मत पाये जाते हैं, जो कि निम्नोक्त हैं - (१) प्रथम मत में समुल्लापक के सुमधुर और मंजुलप्रभणित- ये दोनों पद विशेषण माने गए हैं। तब - सुमधुर और मंजुलप्रभणित जो समुल्लापक उनको पुनः २ सुनाते हैं - यह अर्थ होगा । सुमधुर For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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