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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्राकथन हिनीभाषाटीकासहित (३५) ३-ज्ञान अभ्यस्त और परिपक्क हो तथा वह देने योग्य भी हो, फिर भी उस के अधिकारी ग्राहक के मिलने पर उसे न देने की जो कलुषित वृत्ति है वह ज्ञानमात्सर्य है। ४-कलुपित भाव से ज्ञानप्राप्ति में किसी को बाधा पहुंचाना ही ज्ञानान्तराय है । ५-दूसरा कोई ज्ञान दे रहा हो तब वाणी अथवा शरीर से उस का निषेध करना वह ज्ञानासादन है। ६-किसी ने उचित ही कहा हो फिर भी अपनी उलटी मति के कारण उसे अयुक्त भासित होने से उलटा उस के दोष निकालना उपघात कहलाता है । (२) दर्शनावरणीयकर्म के बन्धहेतु-ज्ञानावरणीय के बन्धहेतु ही दर्शनावरणीय के बन्धहेतु हैं, अर्थात् दोनों के बन्धहेतुओं में पूरी २ समानता है, अन्तर केवल इतना ही है कि जब पूर्वोक्त प्रद्वेष निवादि ज्ञान, ज्ञानी या उस के साधन आदि के साथ सम्बन्ध रखते हों, तब वे ज्ञानप्रदूष, ज्ञाननितव आदि कहलाते हैं और दर्शन-सामान्यबोध, दर्शनी अथवा दर्शन के साधनों के साथ सम्बन्ध रखते हों, तब वे दर्शनप्रद्वप, दर्शननिह्नव *आदि कहलाते हैं । (३) वेदनीयकर्म की मूल प्रकृतिय-सातवेदनीय और असातवेदनीय इन दो भेदों में विभक्त हैं। जिस कर्म के उदय से सुखानुभव हो वह सातवेदनीय और जिस के उदय से दुःख की अनुभूति हो वह कर्म असातवेदनीय कहलाता है । असातवेदनीय का बन्ध दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिदेवन, इन कारणों से होता है । १--बाह्य या आन्तरिक निमित्त से पीड़ा का होना दःख है । २--किसी हितैषी के सम्बन्ध के टूटने से जा चिन्ता वा खेद होता है वह शोक है । ३--अपमान से मन कलुषित होने के कारण जो तीव्र संताप होता है वह ताप है । ४--गद्गद् स्वर से आँतु गिराने के साथ रोना, पीटना श्राक्रन्दन है । ५-- किसी के प्राण लेना बंध है । ६-- वियुक्त व्यक्ति के गुणों का स्मरण होने से जो करुणाजनक रुदन होता है वह परिदेवन कहलाता है। उक्त दुःखादि ६ और उन जैसे अन्य भी ताडन,तर्जन आदि अनेक निमित्त जब अपने में, दूसरे में या दोनों में ही पैदा किये जाएं तब वे उत्पन्न करने वाले के असातवेदनीयकर्म के बिन्धहेतु बनते हैं। सातवेदनीय कर्म के बन्धहेतु-भूत- अनुकम्पा, प्रत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, शांति और शौच ये सातवेदनीय कर्म के बन्धहेतु हैं। इनका विवेचन निम्नीक्त है ___प्राणिमात्र पर अनुकम्पा रखना भूतानुकम्पा है अर्थात् दूसरे के दुःख को अपना ही दुःख मानने का जो भाव है वह अनुकम्पा है। अल्पांशरूप से व्रतधारी गृहस्थ और सर्वांशरूप से व्रतधारी त्यागी इन दोनों पर विशेषरूप से अनुकम्पा रखना व्रत्यनुकम्पा है । अपनी वस्तु का दूसरों को *तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघातज्ञानदर्शनावरणायोः । (तत्त्वार्थ० ६।११) +दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेद्यस्य । (तत्त्वा० ६।१२) For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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