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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४००] श्री विपाक सूत्र - [ सप्तम अभ्याय इस प्रकार उपयाचित- ईप्सित वस्तु की प्रार्थना के लिये उसने निश्चय किया। निश्चय करने के अनन्तर प्रात:काल सूर्य के उदित होने पर जहां पर सागरदत्त सार्थवाह था वहां पर आई आकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगी-हे स्वामिन् ! मैंने तुम्हारे साथ मनुष्यसम्बन्धी सांसारिक सुग्गे का पर्याप्त उपभोग करते हुए आजतक एक भी जीवित रहने वाले बालक या बालिका को प्राप्त नहीं किया। अतः मैं चाहती हूं कि यदि आप अाज्ञा दें तो मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, निज कजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषंड नगर से बाहिर उद्यान में उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना कर उसकी पुत्रप्राप्ति के लिये मनोतो मनाऊ ?, इसके उत्तर में सागरदत्त स थेवाह ने अपनो गंगादत्ता भार्या से कहा कि-भद्र ! मेरी भी यही इच्छा है कि किसी प्रकार से भी तुम्हारे जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री रत्पन्न हो । ऐसा कह कर उसने गंगादत्ता के उक्त प्रस्ताव का समर्थन करते हुए उसे स्वीकार किया। टीका- पाटलिषंड नगर में सिद्धार्थ नरेश का शासन था, उस के शासनकाल में प्रजा अत्यन्त सुखी थी । उसी नगर में सागरदत्त नाम का एक प्रसिद्ध व्यापारी रहता था । उस की स्त्री का नाम गंगादत्ता था, जो कि परम सुशीला एवं पतिव्रता था । इत्यादि वर्णन प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में किया जा चुका है। इसी बात का स्मरण कराते हुए भगवान् महावीर श्री गौतम स्वामी से कहते हैं कि हे गौतम ! जिस समय धन्वन्तरि वैद्य (पूर्ववर्णित) नरक को वेदनाओं को भोग रहा था, उस समय सागरदत्त सार्थवाह की गंगादत्ता भार्या जातनिद्रतावस्था में थी । उस के जो भी संतान होती वह तत्काल ही विनष्ट हो जाती थी। इस अवस्था में गंगादत्ता को बहुत दुःख हो रहा था । पतिगृह में सांसारिक भोगविलास का उसे पर्याप्त अवसर प्राप्त था, परन्तु किसी जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री की माता बनने का उसे आजतक भी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। वह रात दिन इसी चिन्ता में निमग्न रहती थी। एक दिन अर्धरात्रि के समय कुटुम्बसम्बन्धी चिन्ता में निमग्न गंगादत्ता अपने गृहस्थजीवन पर दृष्टिपात करती हुई सोचने लगी कि मुझे गृहस्थ जीवन में प्रवेश किये काफ़ी समय व्यतीत हो चुका है। मैं अपने पतिदेव के साथ विविध प्रकार के सांसारिक सुखों का उपभोग भी कर रही हूँ, उनकी मुझ पर पूर्ण कृपा भी है, जो चाहती हूँ सो उपस्थित हो जाता है। इतना अानन्द का जीवन होने पर भी मैं अाज सन्तान से सर्वथा वंचित हूं, न पुत्र है न पुत्री । वैसे होने को तो अनेक हुए परन्तु सुख एक का भी न प्राप्त कर पाई । पुत्र न सही पुत्री ही होती, परन्तु मेरे भाग्य में तो वह भी नहीं। धिक्कार हो मेरे इस जीवन को। वे माताएं धन्य हैं, जिन्हें अपने जीवन में नवजात शिशुओं के लालन पालन का सौभाग्य प्राप्त है, तथा पुत्रों को जन्म देकर उनकी बालसुलभ अद्भुत क्रीड़ाओं से गद्गद् होती हुई सांसारिक आनन्द के पारावार में निमग्न हो कर स्वर्गीय सुख को भी भूल जाती हैं । स्तनपान के लिये ललचायमान शिशु के हावभाव को देखना, उसकी अव्यक्त अथच स्खलित तोतली वाचा से निकले हुए मधुर शब्दों को सुनना, स्तनपान करते २ कक्ष – काँख की ओर सरकते हुए को अपने हाथों से उठा कर गोद में बिठाना, उनकी अटपटी अथच मंजुलभाषा को सुनने की उत्कण्ठा से उसके साथ उसी रूप में संभाषण आदि करने का सद्भाग्य निःसन्देह उन्हीं माताओं को प्राप्त हो सकता For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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