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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - ३८४] श्री विपाक सूत्र - [ सप्तम अध्याय 1 1 | 1 पाटलिपुत्र नगर के । पुरथिमिल्लेण - पूर्व दिशा के । दारेणं- -द्वार से, मैंने । अणुप्पविट्ठे – प्रवेश किया तो । तत्थ - वहां पर एगं- एक पुरिसं पुरुष को । पासामि - मैंने देखा, जोकि । कच्छुल्लं - कंडू के रोग से युक्त | जाव- यावत् | कपेमाणं- भिक्षावृत्ति से आजीविका चला रहा था। तए णं - तदनन्तर । अहं मैं । दोचं पि- दूसरी बार । छट्ठक्खमणपारणए - पष्ठक्षमण के पारणे के लिये, पाटलिषंड नगर के । दाहिणिल्लेणं-दक्षिण दिशा के । दारेणं-द्वार से प्रवेश किया, तो मैंने । तहेव - तथैव पूर्ववत् अर्थात् उसी पुरुष को देखा । तच्चं पि- तीसरी बार । छट्टक्खमणपारणए - षष्ठक्षमण के पारणे में । पच्चत्थिमेां - उसी नगर के पश्चिम दिशा के द्वार से प्रवेश किया । तहेव - तथैव पूर्व की भांति । तए - तदनन्तर । श्रहं - मैं । चउत्थं पि छुट्टकखमणपारणे - चौथी बार षष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त भी । उत्तरदारेणं - पाटलिषंड के उत्तर दिशा के द्वार से । श्रगुप्पविसामि प्रविष्ट हुआ तो । तं चेव - उसी । पुरिसं - पुरुष को पासामि देखता हूँ, जोकि । कच्छुल्लं - कंडू के रोग से अभिभूत हुआ । जाव - यावत् । वित्ति कप्पेमाणे - भिक्षावृत्ति से आजीविका करता हुआ | विहरति - समय बिता रहा था, उसे देखकर । ममं - मुझे चिंता - विचार उत्पन्न हुआ, तदनन्तर । पुन्वभवपुच्छा - गौतम स्वामी ने उसके पूर्वभव को पूछा अर्थात् भगवन् ! यह पुरुष पूर्व जन्म में कौन था ?, इस प्रकार का प्रश्न गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से किया, इस के उत्तर में भगवान् । वागरेति - कहने लगे । मूलार्थ - तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी ने दूसरी बार षष्ठक्षमण - बेले के पारणे के निमित्त प्रथम पौरुषी प्रथम पहर में यावत् भिक्षार्थ गमन करते हुए पाटलिषड नगर में दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहां पर भी उन्होंने कंडू आदि रोगों से युक्त उसी पुरुष को देखा और वे भिक्षा ले कर वापिस आए। शेष सभी वृत्तान्त पूर्व की भान्ति जानना अर्थात् आहार करने के अनन्तर वे तप और संयम के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं । तदनन्तर भगवान् गौतम तीसरी बार षष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त उक्त नगर में पश्चिम दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं, तो वहां पर भी वे उसी पुरुष को देखते हैं । इसी प्रकार चौथी बार षष्ठक्षमण के पारणे के लिये पाटलिषंड के उत्तरदिग्द्वार से प्रवेश करते हैं, तब भी उन्हों ने उसी पुरुष को देखा, देखकर उन के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि ग्रहो ! यह पुरुष पूर्वकृत अशुभ कर्मों के कटु विपाक को भोगता हुआ कैसा दुःखपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है ? यावत् वापिस आकर उन्हों ने भगवान् से जो कुछ कहा, वह निम्नोक्त है - 1 - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भगवन् ! मैंने षष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त यावत् पाटलिषंड नगर की ओर प्रस्थान किया और नगर के पूर्वदिग्द्वार से प्रवेश करते हुए मैंने एक पुरुष को देखा, जो कि कण्डूरोग से प्राक्रान्त यावत् भिक्षावृत्ति से आजीविका कर रहा था। फिर दूसरी बार पष्ठक्षमण के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिये उक्त नगर के दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहां पर भी उसी पुरुष को देखा । एवं तीसरी बार जब पारणे के निमित्त उस नगर के पश्चिमदिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहां पर भी उसी पुरुष को देखा और चौथी बार जब मैं बेले का पारणा लेने के निमित्त पाटलीपुत्र में उत्तरदिग्द्वार से प्रविष्ट हुआ तो वहां पर भो कंडू के रोग से युक्त यावत् भिक्षावृत्ति करते हुए उसी पुरुष को देखता हूं । उसे देख कर मेरे मानस में यह विचार उत्पन्न हुआ कि अहो ! यह पुरुष पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल पा रहा है, इत्यादि । भगवन् ! यह पुरुष पूर्व भव में कौन था १ जो इस प्रकार के भीषण रोगों से For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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